विश्व में श्रेष्ठतम साधनाश्रों में दस महाविद्या
साधना है, जों साधक उच्चकोटि के होते है वे धीरे धीरे
दसों महाविद्याओं को सिद्ध कर पूर्ण सफलता प्राप्त कर
लेते हैं ।
यद्यपि यह एक कठिन क्रिया हैं। फिर भी साधक
यदि नित्य दसों मह। विद्याश्रों का ध्यान और मात्र एक
बार मंत्र का उच्चारण कर ले तो वह दिन उसके लिए
अत्यन्त ही शुभदायक और उन्नतिदायक रहता है ।
जो सामान्य साधक है, उनके लिए यह आवश्यक
लेख है, उनको चाहिए कि वह नित्य निम्न लिखित ध्यान
और मंत्र का उच्चारण अपने नित्य पूजा में शामिल
करें।
दसों महाविद्याओं का प्रादुर्भाव
दसों महाविद्याश्रो का संबंध सती से हैं,
महाभागवत में स्पष्ट कथा आती है, कि दक्ष प्रजापति ने
शिव को ग्रामंत्रित नही किया, सती ने अपने पिता के
इस यज्ञ में भाग लेने की स्वीकृति चाही तो अनमने भाव
से शिव ने स्वीकृति दे दी। वहां जा कर जब सती ने
देखा कि सभी देवताश्रो के आसन यज्ञ में अपने अपने
स्थान पर है पर उनके पति भगवान शकर का कोई
स्थान निर्धारित नहीं हैं, तो वह अत्यन्त क्रोधित हो गई,
आंखे लाल सुर्ख हो गई, क्रोध से सारा शरीर दहकने
लगा, सिर के केश चारों तरफ बिखर गये और वह
कालाग्नि के रूप में दिखाई देने लगी । गले में मुण्ड माला
पहने हुए थी भयानक जीभ बाहर निकली हुई थी और
वह बार बार विकट हु ंकार कर रही थी । देवी का यह
स्वरूप देख कर देवता तो क्या भगवान शिव भी विचलित
हो गये, उस समय उनके शरीर का तेज करोड़ो सूर्यो के
समान तेजस्वी था, और वे बार बार अट्टहास कर
रही थी। देवी के इस विकराल भयानक रूप को देख कर
शिव भागने लगे मगर रुद्र को दसो दिशाओं
में रोकने के लिए भगवती सती ने अपनी अंगभूता दस
देवियां प्रगट की जो कि दस महाविद्याए कहलाई
जिनके नाम है- काली, तारा, छिन्नमस्ता, धूमावती,
बगलामुखी, कमला त्रिपुर भैरवी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
सुन्दरी और मातंगी ।
जब शिव नियंत्रण मे आये तो भगवती देवी ने कहा
जो साधक नित्य मेरी इन दस देवियों के ध्यान और मंत्र
का एक बार उच्चारण कर लेगा वह निश्चय ही सभी
विघ्नों से परे, सुखी, सफल, सम्पन्न और यशस्वी होगा;
उसके जीवन मैं किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं आयेगी
इस प्रकार का पाठ करने से साधक शत्रुओं पर पूर्ण विजय
प्राप्त करने में सफल हो सकेगा, और उसे प्रत्येक कार्य
में सफलता मिल सकेगी ।
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Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!१८ : मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र विज्ञान
काली
ध्यान
शवारूढाम्महा भी मांघो रदंष्ट्रां हसन्मुखीम्
चतुर्भु जांखड्गमुण्डवराभयकरां शिवाम् ।। १ ।।
मुण्डमालाधरादेवीं ललज्जिह्वान्दिगम्बराम् ।
एवं संचिन्तयेत्काली श्मशानलयवासिनोम् ।।२।।
मन्त्र
क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं दक्षिणे कालिके क्रीं
की ही हीं हूं हूं स्वाहा ।।
२- तारा
ध्यान
प्रत्यालीढपदार्पितांत्रींशवहृद्घोराट्टहासापरा
खंड्गेन्दीवरकत्त्रिखरभुजा हुँकारबीजोद्भवा
खर्चा नीलविशालपिगलजटा जूटैकनागैय्युता
जाड्यन्न्स्य कपालकर्तृ जगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्
३- षोडशी
मन्त्र
ऐं ओं ह्रीं क्रीं हूं फट्
ध्यान
बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुन्त्रिलोचनाम्
पाशांकुशधरांश्चापन्धारयन्तीं शिवाम्भजे ।
मन्त्र
हींकएईल ह्रीं हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं ।
४- भुवनेश्वरी
ध्यान
उद्यद्दिनद्य तिमिन्दुकिरीटान्तुड्गकुचान्नयनत्रययुक्ताम्
स्मेरमुखींव्वरदाङ्कुशपाशाभीतिकराम्प्रभुजे भुवनेशीम्
मन्त्र
‘ह्रीं’
५. छिन्नमस्ता
ध्यान
प्रत्यालीढपदां सदैव दधतीं छिन्नं शिरः कर्तृ कां
दिग्वस्त्रां स्वकबन्धशोणितसुधाधारां पिबन्तोमुदा
नागावद्धशिरोमणिं त्रिनयनां हृद्य त्पलालंकृतां
रत्यासक्तमनोभवोपरिदृढ़ा ध्यायेज्जवासंनिभाम् ।।
मन्त्र
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐंवज्ज्रवैरोचनीयेहूंहूं फट् स्वाहा
६- त्रिपुर भैरवी
ध्यान
उद्यद्भानुसहस्त्रका न्तिमरूणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरा जपपटी व्विद्यामभीति व्वरम्
हस्ताब्जैर्दधतीन्त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रार विन्दश्रियं
देवीम्बद्ध हिमांशुरत्न मुकुटां | व्वन्दे समन्दस्मिताम् ।।
७. धूमावती
मन्त्र
हसैहसकरींहसँ
ध्यान
विवर्णा चंचला दुष्टा दीर्घा च मलिनाम्बरा
विमुक्तकुन्तला रूक्षा विधवा विरलद्विजा
काकध्वजरतारूढा विलम्बितपयोधरा
शूर्पप्हस्तातिरूक्षाक्षा धूतहस्ता वरान्विता
प्रवृद्धघोणा तु भृशंकुटिला कुटिलेक्षणा
क्षुत्पिपासादिता नित्यम्भयदा कलहास्पदा ।।
मन्त्र
धू धू धूमावती ठ: 어:
८- बगलामुखी
ध्यान
मध्ये सुधाब्धिमणिमण्डप रत्नवेदीसिंह। सनोपरि-
गताम्परिपीतवर्णाम्
पीताम्बराभरणमाल्यवि भूषितान्गीन्देवी
नमामिधुतमुद्गर बैरि जिह्वाम्
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जिहवांग्रमादाय करेण देवो व्वामेन शत्रून्परिपीं-
डयन्तीम्
गदामिधातेन च दक्षिणेन पीताम्बराद्याद्विभुजानमामि
मन्त्र
ॐ ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां व्वाचम्मुखं
स्तम्भय जिह्वाकीलय कोलय बुद्धिन्नाशय ह्रीं
ॐ स्वाहा ।।
९. मातंगी
श्यामांगी शशिशेखरात्रिनयनां रत्नसिहासन
स्थिताम् ।।
वेदैर्बाहुदण्डैरसि-खेटक-पाशाकुशधराम् ।।
मन्त्र
ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा
१०- कमला
मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र विज्ञान : १६
ध्यान
कान्त्या काचंनसन्निभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुभिर्गजै-
ईस्तोत्क्षिप्त हिरण्मयामृतघटेरासिच्यमानां श्रियम्
विभ्राणां व्वरमब्जयुग्मभयं हस्तैकिरीटोज्ज्वलां
क्षैमाबद्धनितम्बविम्बललितां व्वन्दे रविन्दस्थिताम्
मन्त्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हू सौंः जगत्प्रसूत्यै नमः ।
वस्तुतः दसों महाविद्याएं जीवन की सर्वश्रेष्ठ
महाविद्याएं है, और इनसे सबधित ध्यान और मंत्र का
नित्य एक बार पाठ करने से उस दिन जीवन
सम्पूर्त दृष्टियौ से पूर्णता एवं सफलता देने में सहायक हैं।
प्रत्येक साधक को अपनी व्यक्तिगत पूजा में इसको अवश्य
ही स्थान देना चाहिए ।
सूर्य नमस्कार
आसन
मन्त्र
बीज मन्त्र
प्रणामासन
ॐ मित्राय नमः
ॐ हाम्
हस्तउत्तानासन
ॐ रवये नमः
ॐ ह्रीम्
पाद हस्तासन
ॐ सूर्याय नमः
ॐ ह्रमु
अश्व संचालनासन
ॐ भानवे नमः
ॐ ह्रमु
पर्वतासन
ॐ खगाय नमः
ॐ होमू
अष्टांगासन
ॐ पूष्णै नमः
ॐ ह्रः
भुजंगासन
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः
ॐ ह्राम्
पर्वतासन
ॐ मरीचये नमः
ॐ ह्रीम्
अश्वस चालनासन/
ॐ आदित्याय नमः
ॐ ह्रमु
पादहस्तासन
ॐ सवि त्रनमः
ॐ ह्रम्
हस्तउत्तानासन
ॐ अर्काय नमः
ॐ ह्रौमू
प्रणामासन
ॐ भास्कराय नमः
ॐ ह्रः
भु मध्य ध्यान-साधक धीरे धीरे श्वास को अन्दर
लेकर बाहर छोड़ें, इस प्रकार की क्रिया लगभग दो तीन मिनट
तक करें। जब मन शान्त हो जाए, तब ललाट के मध्य में
भृकुटि स्थान पर अपने इष्ट का बिम्ब देखने का प्रयास करें।
पहले कुछ प्रकाश दिखाई देगा, प्रकाश का रंग कुछ भी हो
सकता है, यह अलग अलग चित्त वाले साधकों के लिये अलग
हो सकता है। बाहरी शोरगुल और आवाज से कटते हुए उस
प्रकाश में अपने को निमग्न करने का प्रयास करें। जो दिखे
उसका आनन्द लें, जब तक अच्छा लगे ध्यान में रहें, फिर
आंखें खोलकर गुरु चित्र के समक्ष शीश झुका कर प्रणाम
करें। इसके बाद सिन्दूर लेकर यंत्र पर १०८ बार गुरु मंत्र का
उच्चारण करते हुए तिलक करें।
दोनों हाथों में पुष्प लेकर आज्ञा चक्र की अधिष्ठात्री
देवी ‘हाकिनी’ का ध्यान करें और पुष्प को यंत्र पर चढ़ायें
अज्ञानामाम्बुजं तछिमकर सदृशं ध्यानाधाम प्रकाशम्।
हक्षाभ्यां वै कलाभ्याम् परिलसित वपुर्नेन पत्रं सुशुभ्रम् ॥
तन्मध्ये हाकिनी सा शशिसम धवला वक्त्रषटकम दधाना।
विद्यां मुद्रां कपालं डमरु जपवटीं बिभ्रती शुद्धचित्ता ॥
फिर ‘प्राण संजीवित कुण्डलिनी जागरण माला’
(पहले के पांच चकी की साधनाओं में प्रयुक्त माला का प्रयोग किया जा सकता है।)
से निम्न मंत्र की ३ माला ३० दिन तक नित्य जप करें –
आज्ञा चक्र जागरण मंत्र
॥ ॐ हं शिवनेत्र जाग्रय उद्भावय क्षॐ शं ॥
Om Ham Shiv Netram Jusgras Udbhaavay Ksham
Om Sham
एक माह बाद जब साधना समाप्त हो जाये तब यंत्र
को पूजा स्थान में गुरु चित्र के समीप रख दें। माला को अगले
चक्र को साधना के लिये सुरक्षित रख दें। यंत्र को साधना
सम्पन्न होने के एक वर्ष बाद जल में प्रवाहित कर दें।
तीव्र जिज्ञासा आवश्यक
कुण्डलिनी जागरण के क्रम में कई साधकों की
कुण्डलिनी दूसरे या तीसरे वक्र में ही अटक कर रह जाती
है, और साधकों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि उनके दो
बक़ जायत भी है। कई बार तो पांचवे चक्र तक पहुंचने पर
भी साधक को अपनी स्थिति का ठीक से अनुभव नहीं हो
पाता, और विश्वक की इसी स्थिति में कुण्डलिनी की यात्रा
रुक जाती है। सहधार भेदन करने और सर्वस्व को जान
लेने की तीव्र जिज्ञासा यदि बीच में समाप्त हो गई, तो
साधक की कुण्डलिनी मात्र किल्पी एक चक्र में अटक कर
ही नहीं रह जाती, वरन कई बार वह नीचे के चक्रों में वापस
गिर भी जाती है। अतः जिज्ञासा को निरन्तर प्रज्ज्वलित
किये रहना चाहिये। तीव्र जिज्ञासा साधना के लिये ही नहीं,
किसी भी लक्ष्य प्राप्ति के लिये आवश्यक है ही।
साधना विधान
इस साधना को किसी भी दिन प्रातः प्रारम्भ करें।
सामने चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उसपर चावल से एक
छोटा से गोला बनाएं, उसके भीतर कुंकुंम से ‘ॐ’ लिखें।
गोले के बाईं ओर कुंकुंम से ‘हं’ और
बाईं ओर ‘क्षं’ लिखें। ‘ॐ’ के हं ॐ क्ष
ऊपर मंत्र सिद्ध विशिष्ट दिव्य प्राण
प्रतिष्ठित ‘आज्ञा चक्र यंत्र’ का स्थापन करें। अपने आसन पर
बैठ जाएं और ५ मिनट तक सद्गुरु का भू मध्य ध्यान करें।
भु मध्य ध्यान-साधक धीरे धीरे श्वास को अन्दर
लेकर बाहर छोड़ें, इस प्रकार की क्रिया लगभग दो तीन मिनट
तक करें। जब मन शान्त हो जाए, तब ललाट के मध्य में
भृकुटि स्थान पर अपने इष्ट का बिम्ब देखने का प्रयास करें।
पहले कुछ प्रकाश दिखाई देगा, प्रकाश का रंग कुछ भी हो
सकता है, यह अलग अलग चित्त वाले साधकों के लिये अलग
हो सकता है। बाहरी शोरगुल और आवाज से कटते हुए उस
प्रकाश में अपने को निमग्न करने का प्रयास करें। जो दिखे
उसका आनन्द लें, जब तक अच्छा लगे ध्यान में रहें। फिर
आँखें खोलकर गुरु चित्र के समक्ष शीश झुका कर प्रणाम
करें। इसके बाद सिन्दूर लेकर यंत्र पर १०८ बार गुरु मंत्र का
उच्चारण करते हुए तिलक करें।
आज्ञा चक्र जाग्रत होने पर साधक किसी के भी
आभामण्डल का भली प्रकार अवलोकन तो कर ही सकता है,
साथ ही उसके वर्ण विन्यास, रंग के क्रम में भी स्वेच्छानुसार
परिवर्तन कर सकता है। और इस प्रकार आभामण्डल में
संशोधन कर वह किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व में भी अनुकूल
परिवर्तन ला सकता है। जो इच्छा हो, वैसा कर देना या दूसरे
से करवा लेना इसी को तो आज्ञा देने की और आज्ञा मनवाने
की क्षमता प्राप्त करना कहते हैं। प्रकृति में ऐसा ही आज्ञापूर्वक
परिवर्तन कर देने की क्षमता इस चक्र में निहित होती है।
कई कई जन्मों का चलचित्र की भांति दर्शन
पांचों तत्वों में से आकाश तत्व में सर्वाधिक स्पन्दन
होता है, इस आकाश तत्व का ही प्रतिनिधित्व विशुद्ध में होता
है। परन्तु आकाश से भी अधिक स्पन्दन दिव्य शक्तियों में
होता है जो कि आज्ञा चक्र पर केन्द्रित होती है। आज्ञा चक्र को
ही ‘तीसरा नेत्र’ या ‘दिव्य नेत्र’ कहा गया है। इसके जाग्रत
होने को ही छठी इन्द्रिय या ‘सिक्स्थ सेन्स’ का जाग्रत होना
कहा जाता है। ऐसा होने पर साधक किसी के भी भाग्य चक्र
को, उसके कई कई जन्मों के कर्मों को अपने आज्ञा चक्र पर
एक चलचित्र की भांति कुछ क्षणों में ही देख सकते हैं।
आज्ञा चक्र : शास्त्रोक्त स्वरूप
आज्ञा चक्र का स्वरूप दो दलों वाले एक श्वेत कमल
के समान है, जिसके अन्दर सूक्ष्म रूप से ‘मनस तत्व’ विद्यमान
है। कमल के मध्य में एक त्रिकोण है, जिसमें ‘प्रणव’ (ॐ)
बीज स्थित है। इसके दो दल ‘सूर्य’ व ‘चन्द्र’ के क्रमशः दाहकता
युक्त तथा शीतलतायुक्त गुणों से सम्पन्न हैं। दत्नों में निहित
शक्तियां इस प्रकार हैं
है- इस दल की शक्ति से साधक के नेत्रों में अत्यंत
तेजस्विता आ जाती है, जिससे वह किसी भी वस्तु को क्षण में
भस्म कर सकता है। इसी दल की शक्ति से जब राम ने क्रोधयुक्त
होकर लंका जाते समय समुद्र को देखा था, तब समुद्र को
घबराकर प्रकट होकर क्षमा याचना करनी पड़ी थी। इसी तृतीय
नेत्र की ज्वाला से भगवान शिव ने दक्ष का यज्ञ विध्वंस किया
और कामदेव को भस्म किया था।
है- दूसरे दल से करुणा, प्रेम, ममत्व और
सूजनात्मक क्षगता प्राप्त होती है, जिसके कारण वह दुःखी
जीवों को सुख और शन्ति प्रदान कर सकता है, मात्र दृष्टिपात
से निर्धन को सम्फ्त्र, असफल को सफल बना सकता है, सिद्धियां
प्रदान कर सकता है, किसी को भी पूर्णता दे सकता है।
मौधूली वेला: एक ऐसा मुहूर्त जो नित्य उपलब्ध है
गौधूली वेला के सम्बन्ध में ऋषियों का स्पष्ट निर्देश है कि यह सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है और इसमें किसी प्रकार की बाधा
या दोष नहीं लगता। वास्तव में गौधूलि वेला गौ के महत्व को प्रतिपादित करती है। गाय के शरीर में समस्त ३३ करोड़
देवताओं का वास है। यहां तक कि देवताओं की गाय के शरीर में निवास देते समय विलम्ब से पहुंचने के कारण लक्ष्मी को
गाय के शरीर में स्थान प्राप्त न हो सका और तब गाय के गोबर में लक्ष्मी को स्थान दिया गया और इसीलिये किसी भी
प्रकार के पूजन में गाय के गोबर का प्रयोग किया जाता है। गौधूली बेला का तात्पर्य उस समय से है जब सूर्य अस्त हो रहा
हो और वन में घास चर कर सैकड़ों गायों का झुण्ड गांब में अपने स्वामी के घर लौट रहा हो। घर में बंधे इन गायों के बछड़े
अपनी मां की याद में जोर-जोर से रम्भाते हैं, उनकी आवाज सुनकर गायें और जल्दी-जल्दी झपटती हुई दौड़ती घरों की
तरफ बढ़ती है, उनकी चरणों से उठे धूल के बवण्डर पूरे आस-पास के वातावरण में छा जाता है। क्योंकि यह धूल का
बबण्डर गायों के चरणों से स्पर्श होकर घड़ी दो घड़ी के लिये वातावरण आच्छादित कर देता है।
यही एक घण्टे का समय गौधूली वेला कहलाता है। अर्थात गायों के चरणों के धूली व्याप्त होने से बातावरण इतना
अधिक पवित्र मात्र इसी एक घण्टे की अवधि के लिये हो जाता है, जिसमें नक्षत्र, चन्द्रमा, तिथि का कोई भी दोष व्याप्त नहीं
हो पाता। नक्षत्रों की दृष्टि से भी यह एक संधिकाल होता है, जिस समय सूर्य अस्त हो रहा होता है, वातावरण मॅएकशान्ति
प्रारम्भ होने लगती है, व्यक्ति जीवनचर्या के क्रिया कलाप से विमुक्त होकर घर की ओर प्रस्थान करता है, अथवा घर आ जाता
है। इस समय मानस में यह भावना भी आती है, कि आज की चिन्ताएं समाप्त हुई, कल की बात कल देखी जायेगी। इसीलिये
मन्दिरों में, घरों में आरती सम्पन्न की जाती है, क्योंकि देव आह्वान का यह शुभ समय ही साधक चाहे तो इस समय का
उपयोग साधना, तपस्या, मंत्र जप में करे अथवा कोई होटल, मधुशाला इत्यादि में जाकर व्यतीत करे… लेकिन साधक
बुद्धिशील व्यक्ति है, उसे निर्णय लेना आता ही है।







