Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

Pitrnath Gadadhar Vishnu Stotra

पितर देव Pitrnath Gadadhar Vishnu Stotra

🟨🌼 पितृनाथ गदाधर विष्णु स्तोत्र और 🌼🟨

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🟨🌼 गरुड़ पुराण का दसवाँ अध्याय 🌼🟨

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🟨🌼 दाह अस्थि संचय कर्म निरुपण 🌼🟨

🟨🌼 पितृनाथ गदाधर विष्णु स्तोत्र 🌼🟨

🍁 पितृ उद्धारक गदाधर विष्णु माला मंत्र 🍁

ॐ नमो भगवते गदाधराय विष्णवे पितृनाथाय,

गया- क्षेत्र स्थित विष्णुपदाय,

फल्गुनदीतटविहारी अक्षयवटवासिने,

गयासुरसंहारिणे सर्वपितृमोक्षकाय,

पिण्डदानफलप्रदाय श्राद्धतोषणकराय,

धर्मार्थकाममोक्षप्रदाय शरणागतवत्सलाय,

संसारसागरनौकाय दुःखविनाशाय,

करुणाघनाय जनार्दनाय, विष्णवे नमो नमः॥

🌷🌷 पितृनाथ गदाधर विष्णु स्तोत्र 🌷🌷

ॐ नमो गदाधराय नित्यशरण्याय ते नमः।

पितॄणामुद्धारकाय विष्णवे परमात्मने॥१॥

अर्थ:

हे गदा धारण करने वाले विष्णु! आप ही नित्य शरण देने वाले हैं। हे परमात्मा! पितरों का उद्धार करने वाले आप गदाधर को मेरा प्रणाम।

🍁

यत्र श्राद्धं क्रियामाणं विष्णुप्रीत्यै सदा भवेत्।

तत्र पितृगणाः सर्वे तृप्तिं यान्ति गदाधर॥२॥

अर्थ:

जहाँ श्राद्ध आदि कर्म विष्णु की प्रसन्नता के लिए किया जाता है, वहाँ पितरों की सम्पूर्ण तृप्ति हो जाती है, हे गदाधर!

🍁

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।

गदाहस्तं पितृनाथं विश्वनाथं नमाम्यहम्॥३॥

अर्थ:

शांत स्वरूप वाले, शेषनाग पर शयन करने वाले, कमलनाभ, देवताओं के ईश्वर, गदा-धारी, पितृनाथ, विश्वनाथ विष्णु को प्रणाम।

🍁

गदा करस्थां भुवनैकनाथं भक्तार्तिहन्तारमशेषमूर्तिम्।

पितॄण्तरात्मानममुत्रनाथं नमामि विष्णुं शरणागतं तम्॥४॥

अर्थ:

जिनके करकमल में गदा सुशोभित है, जो सभी लोकों के नाथ हैं, जो भक्तों की पीड़ा हरते हैं, पितरों के अन्तर्यामी और इस लोक-परलोक के नाथ हैं—उन विष्णु को प्रणाम।

🍁

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।

देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥५॥

अर्थ:

नारायण, नरश्रेष्ठ और सरस्वती देवी का नमस्कार करके ही इस स्तवन का आरम्भ करना चाहिए, तब विजय प्राप्त होती है।

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गदायुधं पीतवसानमीड्यं शंखारविण्यस्तकरं त्रिनेत्रम्।

पद्मायताक्षं हरिवंशनाथं स्मरामि नित्यं पितृनाथमेकम्॥६॥

अर्थ:

गदा धारण करने वाले, पीताम्बरधारी, शंखधारी, त्रिनेत्र वाले, कमलनयन, हरिवंश के स्वामी गदाधर विष्णु का स्मरण करता हूँ।

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यः पाययत्यमृतमोजसा सुरान् यः पालयत्यखिलमक्षरं जगत्।

यः पाति पितृगणमक्षयं हरिः स मे गदाधरशिवः प्रसीदतु॥७॥

अर्थ:

जो देवताओं को अमृत पिलाते हैं, जो संपूर्ण जगत का पालन करते हैं और जो पितरों को भी अक्षय लोक में स्थित करते हैं, वही गदाधर विष्णु प्रसन्न हों।

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कृत्वा वराहं पृथिवीं समुद्धृतां त्वया जगन्मोक्षकरं प्रपाद्यते।

पितॄन्प्रसीदस्व यथा सदा विभो गदाधराख्यं शरणं ममास्तु ते॥८॥्

“हे प्रभु! आपने वराह रूप धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया और समस्त जगत को मोक्ष प्रदान करने योग्य बना दिया।

अब आप मेरे पितरों पर भी सदा प्रसन्न रहें।

हे गदाधर! आप ही मेरे शरणदाता हैं, आप ही का आश्रय मुझे प्राप्त हो।”

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कूर्मावतारे धरणिं दधाति यः क्षीराब्धिमथ्याऽमृतमुद्वहद्भिः।

स पितृनाथो गदया प्रजापतिः पावन्यनाथोऽस्तु ममोपकारकः॥९॥

अर्थ:

कूर्मावतार में जिन्होंने धरणी को थामा और समुद्र मंथन से अमृत प्राप्त कराया, वही पितृनाथ गदाधर मेरा उपकार करें।

🍁

मत्स्यारूपेण यः प्राचीनवेदान् सदा समुद्रादथ संहरन्ति।

स पितृनाथो मम मोक्षदायी नमो गदाधर्य हर्यनन्तरूप॥१०॥

अर्थ:

मत्स्य रूप से समुद्र से वेदों की रक्षा करने वाले, वही पितृनाथ गदाधर मुझे मोक्ष प्रदान करें।

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नरसिंहरूपेण दैत्यमर्दनं प्रह्लादपोषं करुणानिधानम्।

पितॄणां तारं मृत्युजालमोचनं नमामि विष्णुं गदया विधातृम्॥११॥

अर्थ:

नरसिंह रूप में दैत्यों का संहार करने वाले, प्रह्लाद का पालन करने वाले, करुणामय, पितरों को मृत्युजाल से छुड़ाने वाले गदाधर विष्णु को नमस्कर है।

🍁

रामं रामं राघुकुलनिधिं रावणमर्दनं।

पितृनाथं गदाधारं नमामि परमेश्वरम्॥१२॥

अर्थ:

राघुकुलनिधि, रावण-विनाशक, पितृनाथ, गदा-धारी परमेश्वर राम को नमस्कार।

🍁

वामनं बलिविक्रमं त्रिविक्रमं जगत्पतिम्।

पितृनाथं गदाधारं नमामि पुरुषोत्तमम्॥१३॥

अर्थ:

वामन, बलिविजेता त्रिविक्रम, जगत्-पति, पितृनाथ गदा-धारी पुरुषोत्तम विष्णु को नमस्कार।

🍁

गोपालेन कृते लीलां, गोवर्धनधरं विभुम्।

गदाधरं पितृनाथं, नमामि मधुसूदनम्॥१४॥

अर्थ:

गोपाल रूप से लीला करने वाले, गोवर्धन धारण करने वाले, गदा-धारी पितृनाथ मधुसूदन को नमस्कार।

🍁

कलौ घनश्यामतनुं त्रिलोकनाथं, पितॄणां रक्षकं भक्तवत्सलं हरिम्।

गदाधरं स्मृतिमयं परं प्रपद्ये, यथाऽस्मदंशानपि तारयेन्नः॥१५॥

अर्थ:

कलियुग में घनश्याम स्वरूप वाले, त्रिलोकनाथ, पितृरक्षक, भक्तवत्सल गदाधर विष्णु मेरी शरण हों।

🍁

यत्र स्मृतो विष्णुपदः सदा स्थिरो, गया महापुण्यभुवि स्थितः प्रभुः।

सर्वे पितॄणां तृप्तिमाप्तुमर्हति, स मे गदाधरः शरण्य ईश्वरः॥१६॥

अर्थ:

गया के पवित्र क्षेत्र में स्थित विष्णुपद का स्मरण करने से ही सभी पितरों को तृप्ति प्राप्त होती है। वही गदाधर मेरी शरण हैं।

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फल्गूतटे पिण्डविधिः कृतो यदि, विष्णुपदं दृष्ट्वा जनोऽर्चयेद्यदि।

पितॄणि सर्वाण्यनुगृह्य तुष्यति, गदाधरः पापविनाशकः प्रभुः॥१७॥

अर्थ:

फल्गु नदी के तट पर यदि पिण्डदान करके विष्णुपद का दर्शन और पूजन किया जाए तो सभी पितर तुष्ट होते हैं और पाप नष्ट हो जाते हैं।

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अक्षय्यवृक्षेऽक्षयदं व्रतेन यः, सदा स्थिता गच्छति मुक्तिमेव हि।

तत्रापि विष्णोः चरणं प्रपूज्यते, नमामि पितृनाथगदाधरं विभुम्॥१८॥

अर्थ:

गया के अक्षयवट पर जो श्राद्ध किया जाता है, वह अक्षय फल देता है। वहाँ विष्णु के चरण की पूजा कर पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है।

🍁

यत्र श्राद्धं फल्गुनदीसमर्पितं, यत्रैव दृष्ट्वा चरणं हरेः पदम्।

पितॄणि तुष्यन्ति सहस्रवर्षतः, स पातु मां गदाधरः पितृप्रियः॥१९॥

अर्थ:

फल्गु नदी पर किया गया श्राद्ध और विष्णुचरण का दर्शन पितरों को सहस्रों वर्ष तक तृप्ति प्रदान करता है। वह पितृप्रिय गदाधर मेरी रक्षा करें।

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गयासुरे पादमथ प्रपात्य यः, पितॄण् समुद्धृत्य ततान दैवतम्।

स पितृनाथो गदया स्थितो विभुः, नमामि तं पापविनाशकं हरिम्॥२०॥

अर्थ:

जब गदाधर विष्णु ने गयासुर को अपने चरणों से दबाया, तब पितरों का उद्धार हुआ और वह स्थान दिव्य बना। उसी पितृनाथ गदाधर विष्णु को नमस्कार।

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यः पिण्डदानं स्वयमेव रक्षति, यः तर्पणं सर्वपितॄणां करोति।

स गदाधरः पितृनाथ ईश्वरः, नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय॥२१॥

अर्थ:

जो स्वयं पिण्डदान की रक्षा करते हैं और सभी पितरों का तर्पण करते हैं, वे गदाधर पितृनाथ ईश्वर को प्रणाम।

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न दारकाणां न धनस्य कामना, पितॄण् तृप्तिर्मम हृद्यवासना।

संपद्यतां तद्गदया धरो हरिः, नमामि विष्णुं शरणं पितृप्रियः॥२२॥

अर्थ:

न तो मुझे संतान की, न धन की कामना है, केवल पितरों की तृप्ति ही हृदय की अभिलाषा है। हे गदाधर पितृप्रिय विष्णु! आप ही मेरी शरण हैं।

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यः पिण्डदानं करतोऽपि नास्तिकैः, पितॄन्प्रसीदत्यथ तेषु माधवः।

किं पुनः श्रद्धासमन्वितैर्नरैः, गदाधरो यः पितृनाथ ईश्वरः॥२३॥

अर्थ:

यहाँ तक कि जो लोग बिना श्रद्धा पिण्डदान करते हैं, उन पर भी माधव पितरों को तृप्त कर देते हैं। फिर श्रद्धायुक्त पुरुषों पर उनकी कृपा और भी अधिक होती है।

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यः श्राद्धकाले विधिवद्भुजो नरः, विष्णोः पदं स्पृष्टमथाचरेत्तदा।

स एव लोकत्रितयं विमोचयेत्, गदाधरोऽयं पितृनाथ ईश्वरः॥२४॥

अर्थ:

जो मनुष्य श्राद्धकाल में विधिपूर्वक विष्णुपद का स्पर्श करता है, वह तीनों लोकों के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

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अखिलत्रैलोक्यपितृप्रमोदकं, गदया धरोऽसौ परमो जनार्दनः।

नमामि विष्णुं शरणागतवत्सलं, पितृनाथगदाधरमादिदेवम्॥२५॥

अर्थ:

जो तीनों लोकों के पितरों को प्रसन्न करने वाले हैं, गदा-धारी जनार्दन, शरणागतवत्सल, पितृनाथ आदिदेव विष्णु को नमस्कार।

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अनन्तशक्तिरेषोऽसि गदापाणिर्महान्विभुः ।

पितॄणां तारकस्त्वं हि त्राता लोकत्रयेश्वर ॥२६

हिंदी अर्थ:

हे गदाधर विष्णु! आप अनन्त शक्ति के स्वामी हैं। गदा धारण करने वाले, समस्त लोकों के त्राता और पितरों को तारने वाले भगवान आप ही है

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यस्य नामस्मृतिं कृत्वा गच्छन्ति पितरो गतिम् ।

स वै पितृनाथो विष्णुर्मुक्तिदः परमः प्रभुः ॥२७

अर्थ:

जिसके नाम का स्मरण करते ही पितर गति प्राप्त करते हैं, वही पितृनाथ विष्णु परम मुक्तिदाता प्रभु हैं।

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नमस्ते गदिनां श्रेष्ठ पापसंहारकारक ।

भक्तानां पितृणां चैव दातृ धर्मार्थमोक्षद ॥२८

अर्थ:

हे गदा धारण करने वाले श्रेष्ठ भगवान! आप पापों का संहार करते हैं और भक्तों व पितरों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करते हैं।

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गदया दुष्टसंघातं जघानासुरमद्भुतम् ।

तथैव पितृशापघ्नं करोति तव दर्शनम् ॥२९

अर्थ:

आपकी गदा ने असुरों का विनाश किया, वैसे ही आपके दर्शन से पितृशाप भी नष्ट हो जाते हैं।

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गयाधिपं गयासुरं पादेन दधिषे हर ।

तस्मादिदं पुरं पुण्यं गया नाम्ना प्रकीर्तितम् ॥३०

अर्थ:

हे हरि! आपने गयासुर को अपने चरण से दबाया, उसी कारण यह नगर “गया” नाम से विख्यात हुआ।

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विष्णुपादप्रसिद्धं यत्पुण्यक्षेत्रं सनातनम् ।

तत्र स्नानं जपं दानं पितृदायप्रमोक्षणम् ॥३१

अर्थ:

जहाँ विष्णुपाद प्रसिद्ध है, वह सनातन पुण्यक्षेत्र है। वहाँ स्नान, जप और दान से पितरों को मोक्ष मिलता है।

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फल्गुन्या तटभूमौ च अक्षयवटमूलके ।

यत्कृतं पिण्डदानं तु सर्वपापप्रणाशनम् ॥३२

अर्थ:

फल्गु नदी के तट और अक्षयवट के नीचे जो पिण्डदान किया जाता है, वह सभी पापों का नाश करने वाला है।

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अत्र गदाधरो विष्णुर्नित्यं पितृरक्षकारकः ।

यः पश्यति पदांभोजं स मुक्तिं लभते ध्रुवम् ॥३३

अर्थ:

इस गया क्षेत्र में गदाधर विष्णु सदैव पितरों की रक्षा करते हैं। जो उनके पदकमल का दर्शन करता है, वह निश्चित ही मुक्ति प्राप्त करता है।

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यत्र स्थिता मही देवी विष्णोः पादाङ्कमण्डले ।

पितरस्तृप्यन्ति नित्यं तु तत्र दत्तैः पयोधिभिः ॥३४

अर्थ:

जहाँ पृथ्वी पर भगवान विष्णु के चरणचिह्न अंकित हैं, वहाँ किए गए जलार्पण से पितर सदा तृप्त होते हैं।

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गदाधरं स्मरेद्यो हि गया क्षेत्रनिवासिनम् ।

न तस्य पितृदुःखं स्यात्सर्वे पितर उद्धृताः ॥३५

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जो गयाक्षेत्र के गदाधर विष्णु का स्मरण करता है, उसके पितर सभी दुःखों से मुक्त हो जाते हैं।

(गया माहात्म्य खण्ड –३६–४५)

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यत्र ब्रह्मा च रुद्रश्च देवाः सिद्धाः सनातनाः ।

गदाधरं नमस्यन्ति तं गया क्षेत्रमाश्रये ॥३६

अर्थ:

जहाँ ब्रह्मा, रुद्र और सभी देवता गदाधर विष्णु की पूजा करते हैं, उसी गया क्षेत्र का मैं आश्रय लेता हूँ।

🍁

गया नाम पुरं पुण्यं पितृमोक्षप्रदं शुभम् ।

यत्र स्थितं विष्णुपादं दिव्यं मोक्षमयं पदम् ॥३७

अर्थ:

गया पुण्यनगर पितरों को मोक्ष देने वाला है। यहीं विष्णुपाद स्थित है, जो दिव्य और मोक्षमय है।

🍁

विष्णुपादप्रसादेन मुक्ताः स्युः पितरः ध्रुवम् ।

पितृणां तृप्तिकर्तारं नत्वा यान्ति परां गतिम् ॥३८

अर्थ:

विष्णुपाद की कृपा से पितर निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं और उनकी तृप्ति से संतुष्ट होकर उत्तम गति पाते हैं।

🍁

अक्षयवटमूलस्थे गदाधरपदाम्बुजे ।

अक्षय्यं फलमाप्नोति यः पिण्डं संप्रयच्छति ॥३९

अर्थ:

जो अक्षयवट के नीचे गदाधर के चरणकमलों में पिण्डदान करता है, वह अक्षय फल प्राप्त करता है।

🍁

फल्गुन्या सलिले स्नात्वा विष्णुपादं समाश्रयेत् ।

सर्वक्लेशविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम् ॥४०

अर्थ:

फल्गु नदी में स्नान करके विष्णुपाद का आश्रय लेने वाला हर व्यक्ति सभी क्लेशों से मुक्त होकर परम गति प्राप्त करता है।

🍁

गयाक्षेत्रे गदाधरं यो भक्त्या पर्युपासते ।

तस्य पितृगणाः सर्वे यान्ति वैकुण्ठधामकम् ॥४१

अर्थ:

गया क्षेत्र में जो भक्तिभाव से गदाधर की उपासना करता है, उसके सभी पितर वैकुण्ठ धाम को जाते हैं।

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यः करोति तु पिण्डं च विष्णुपादे हि मानवः ।

स पितृणां कोटिसंख्यान् मोचयत्यखिलान्शुभान् ॥४२

अर्थ:

जो मनुष्य विष्णुपाद पर पिण्डदान करता है, वह अपने करोड़ों पितरों को मुक्त कर देता है।

🍁

गदाधरं जगन्नाथं गया क्षेत्रनिवासिनम् ।

सदा स्मरामि हृदये पितृनाथं सनातनम् ॥४३

अर्थ:

मैं अपने हृदय में सदा उस गदाधर विष्णु को स्मरण करता हूँ, जो गया क्षेत्र में पितृनाथ रूप से निवास करते हैं।

🍁

गयासुरोऽपि यं दृष्ट्वा मोक्षमाप सुदुर्लभम् ।

स विष्णुः पितृनाथः स्यात्पावनः सर्वजीविनाम् ॥४४

अर्थ:

जिसे देखकर गयासुर ने भी दुर्लभ मोक्ष प्राप्त किया, वही विष्णु पितृनाथ हैं, जो सब जीवों को पावन करने वाले हैं।

🍁

विष्णुपादप्रणामेन मुच्यन्ते पातकानि वै ।

गदाधरस्य कीर्त्या च सर्वकामाः प्रसीदति ॥४५

अर्थ:

विष्णुपाद को प्रणाम करने से पाप मिट जाते हैं, और गदाधर की कीर्ति गाने से सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

🍁

गदाधरं हरिं वन्दे सर्वपापप्रणाशनम् ।

येन दृष्टेन पितरः सन्तृप्ताः परमां गतिम् ॥४६

अर्थ:

मैं उस गदाधर हरि को वंदन करता हूँ, जिनके दर्शन से पितर संतुष्ट होकर परम गति प्राप्त करते हैं।

🍁

नारायणं जगन्नाथं गदाधरमनामयम् ।

गया क्षेत्रेश्वरं देवं प्रणमामि पुनः पुनः ॥४७

अर्थ:

मैं नारायण, जगन्नाथ, गदाधर, और गया क्षेत्र के ईश्वर भगवान को बार-बार प्रणाम करतऐ

🍁

पितृणां तारकं विष्णुं गदाधरमनन्तकम् ।

स्मरामि सततं हृदये दुःखनाशकरं विभुम् ॥४८

अर्थ:

मैं सदा हृदय में पितरों को तारने वाले, गदा धारण करने वाले, दुःखनाशक अनन्त विष्णु का स्मरण करता हूँ।

🍁

गया माहात्म्ययुक्तं हि स्तवनं यः पठेन्नरः ।

तस्य पितृगणाः सर्वे याति स्वर्गं सनातनम् ॥४९

अर्थ:

जो मनुष्य इस गया माहात्म्य सहित स्तवन का पाठ करता है, उसके पितर सब स्वर्गलोक में जाते हैं।५०

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धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रदाता पितृवत्सलः ।

गदाधरः सदा भक्त्या स्तुत्यः पापप्रणाशनः ॥५१

अर्थ:

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले, पितरों से स्नेह करने वाले गदाधर विष्णु सदैव भक्तिभाव से स्तुति के योग्य हैं।

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अत्र स्नानं जपं दानं पितृणां तृप्तिकारकम् ।

गदाधरप्रसादेन लभते मुक्तिमुत्तमाम् ॥५२

अर्थ:

यहाँ स्नान, जप और दान पितरों की तृप्ति करता है, और गदाधर की कृपा से उत्तम मुक्ति मिलती है।

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नमोऽस्तु पितृनाथाय गदाधराय विष्णवे ।

यस्य नामस्मृतिं कृत्वा मुच्यन्ते जन्मबन्धनात् ॥५३

अर्थ:

पितृनाथ गदाधर विष्णु को नमस्कार है, जिनका नाम स्मरण करने से जन्म-बन्धन से मुक्ति मिलती है।

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गदया पातकं हन्ता पितृणां दुःखनाशकः ।

नमामि पितृनाथं तं विष्णुं लोकहितायिनम् ॥५४

अर्थ:

गदा से पापों का नाश करने वाले, पितरों के दुःख दूर करने वाले, लोकहितकारी पितृनाथ विष्णु को प्रणाम करता हूँ।

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स्तोत्रमेतत्पवित्रं हि पितृणां मोक्षसाधनम् ।

यः पठेच्छ्रावयेन्नित्यं तस्य पुण्यं न नश्यति ॥५५

अर्थ:

यह स्तोत्र पवित्र है और पितरों के मोक्ष का साधन है। जो इसे पढ़ता या सुनाता है, उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता।

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गदाधरं हृदि ध्यात्वा पितृनाथं सनातनम् ।

सर्वान्कामानवाप्नोति मोक्षमन्ते न संशयः ॥५६

अर्थ:

जो हृदय में पितृनाथ सनातन गदाधर विष्णु का ध्यान करता है, वह सभी इच्छाएँ प्राप्त कर अंत में मोक्ष पाता है।

🌸 इति “पितृनाथ गदाधर विष्णु स्तवनम्”

सम्पूर्णम् (५५ श्लोक सहित)। 🌸

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🟨🌼 गरुड़ पुराण का दसवाँ अध्याय 🌼🟨

🟨🟨 दाह अस्थि संचय कर्म निरुपण 🟨🟨

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“मृत्यु के अनन्तर के कृत्य, शव आदि नाम वाले छ्: पिण्ड दानों का फल, दाह संस्कार की विधि, पंचक में दाह का निषेध, दाह के अनन्तर किये जाने वाले कृत्य, शिशु आदि की अन्त्येष्टि का विधान”

गरुड़ जी बोले – हे विभो :- अब आप पुण्यात्मा पुरुषों के शरीर के दाह संस्कार का विधान बतलाइए और यदि पत्नी सती हो तो उसकी महिमा का भी वर्णन कीजिए।

श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य :- जिन और्ध्वदैहिक कृत्यों को करने से पुत्र और पौत्र, पितृ-ऋण से मुक्त हो जाते हैं, उसे बताता हूँ, सुनो। बहुत-से दान देने से क्या लाभ? माता-पिता की अन्त्येष्टि क्रिया भली-भाँति करें, उससे पुत्र को अग्निष्टोम याग के समान फल प्राप्त हो जाता है।

माता-पिता की मृत्यु होने पर पुत्र को शोक का परित्याग करके सभी पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त बान्धवों के साथ मुण्डन कराना चाहिए। माता-पिता के मरने पर जिसने मुण्डन नहीं कराया, वह संसार सागर को तारने वाला पुत्र कैसे समझा जाए? अत: नख और काँख को छोड़कर मुण्डन कराना आवश्यक है। इसके बाद समस्त बान्धवों सहित स्नान करके धौत वस्त्र धारण करें तब तुरंत जल ले आकर जल से शव को स्नान करावे और चन्दन अथवा गंगा जी की मिट्टी के लेप से तथा मालाओं से उसे विभूषित करें। उसके बाद नवीन वस्त्र से ढककर अपसव्य होकर नाम-गोत्र का उच्चारण करके संकल्पपूर्वक दक्षिणासहित पिण्डदान देना चाहिए। मृत्यु के स्थान पर “शव” नामक पिण्ड को मृत व्यक्ति के नाम-गोत्र से प्रदान करें। ऎसा करने से भूमि और भूमि के अधिष्ठाता देवता प्रसन्न होते हैं।

इससके पश्चात द्वार देश पर “पान्थ” नामक पिण्ड मृतक के नाम-गोत्रादि का उच्चारण करके प्रदान करे। ऎसा करने से भूतादि कोटि में दुर्गतिग्रस्त प्रेत मृत प्राणी की सद्गति में विघ्न-बाधा नहीं कर सकते। इसके बाद पुत्र वधू आदि शव की प्रदक्षिणा करके उउसकी पूजा करें तब अन्य बान्धवों के साथ पुत्र को शव यात्रा के निमित्त कंधा देना चाहिए। अपने पिता को कंधे पर धारण करके जो पुत्र श्मशान को जाता है, वह पग-पग पर अश्वमेघ का फल प्राप्त करता है।

पिता अपने कंधे पर अथवा अपनी पीठ पर बिठाकर पुत्र का सदा लालन-पालन करता है, उस ऋण से पुत्र तभी मुक्त होता है जब वह अपने मृत पिता को अपने कंधे पर ढोता है। इसके बाद आधे मार्ग में पहुँचकर भूमि का मार्जन और प्रोक्षण करके शव को विश्राम कराए और उसे स्नान कराकर भूत संज्ञक पितर को गोत्र नामादि के द्वारा ‘भूत’ नामक पिण्ड प्रदान करें। इस पिण्डदान से अन्य दिशाओं में स्थित पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि उस हवन करने योग्य देह की हवनीयता अयोग्यता नहीं उत्पन्न कर सकते।

उसके बाद श्मशान में ले जाकर उत्तराभिमुख स्थापित करें। वहाँ देह के दाह के लिए यथाविधि भूमि का संशोधन करें। भूमि का सम्मार्जन और लेपन करके उल्लेखन करें अर्थात दर्भमूल से तीन रेखाएँ खींचें और उल्लेखन क्रमानुसार ही उन रेखाओं से उभरी हुई मिट्टी को उठाकर ईशान दिशा में फेंककर उस वेदिका को जल से प्रोक्षित करके उसमें विधि-विधानपूर्वक अग्नि स्थापित करें। पुष्प और अक्षत आदि से क्रव्यादसंज्ञक अग्निदेव की पूजा करें और “लोमभ्य: (स्वाहा)” इत्यादि अनुवाक से यथाविधि होम करना चाहिए। (तब उस क्रव्याद – मृतक का मांस भक्षण करने वाली – अग्नि की इस प्रकार प्रार्थना करें) तुम प्राणियों को धारण करने वाले, उनको उत्पन्न करने वाले तथा प्राणियों का पालन करने वाले हो, यह सांसारिक मनुष्य मर चुका है, तुम इसे स्वर्ग ले जाओ। इस प्रकार क्रव्याद-संज्ञक अग्नि की प्रार्थना करके वहीं चंदन, तुलसी, पलाश और पीपल की लकड़ियों से चिता का निर्माण करें।

हे खगेश्वर :- उस शव को चिता पर रख करके वहाँ दो पिण्ड प्रदान करें। प्रेत के नाम से एक पिण्ड चिता पर तथा दूसरा शव के हाथ में देना चाहिए। चिता में रखने के बाद से उस शव में प्रेतत्व आ जाता है। प्रेतकल्प को जानने वाले कतिपय विद्वज्जन चिता पर दिये जाने वाले पिण्ड को “साधक” नाम से संबोधित करते हैं। अत: चिता पर साधक नाम से तथा शव के हाथ पर “प्रेत” नाम से पिण्डदान करें। इस प्रकार पाँच पिण्ड प्रदान करने से शव में आहुति-योग्यता सम्पन्न होती है। अन्यथा श्मशान में स्थित पूर्वोक्त पिशाच, राक्षस तथा यक्ष आदि उसकी आहुति-योग्यता के उपघातक होते हैं। प्रेत के लिए पाँच पिण्ड देकर हवन किये हुए उस क्रव्याद अग्नि को तिनकों पर रखकर यदि पंचक (धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ये पाँच नक्षत्र पंचक कहलाते हैं और इन पंचकों के स्वामी ग्रह क्रमश: वसु, वरुण, अजचरण अथवा अजैकपात, अहिर्बुध्न्य और पूषा हैं) न हो तो पुत्र अग्नि प्रदान करे।

पंचक में जिसका मरण होता है, उस मनुष्य को सद्गति नहीं प्राप्त होती। पंचक शान्ति किये बिना उसका दाह संस्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा अन्य की मृत्यु हो जाती है। धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्ध से रेवती तक पाँच नक्षत्र पंचक संज्ञक है। इनमें मृत व्यक्ति दाह के योग्य नहीं होता औऔर उसका दाह करने से परिणाम शुभ नहीं होता। इन नक्षत्रों में जो मरता है, उसके घर में कोई हानि होती है, पुत्र और सगोत्रियों को भी कोई विघ्न होता है। अथवा इस पंचक में भी दाह विधि का आचरण करके मृत व्यक्ति का दाह-संस्कार हो सकता है।

पंचक मरण-

प्रयुक्त सभी दोषों की शान्ति के लिए उस दाह-विधि को कहूँगा।

हे तार्क्ष्य :- कुश से निर्मित चार पुतलों को नक्षत्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके शव के समीप में स्थापित करें तब उन पुतलों में प्रतप्त सुवर्ण रखना चाहिए और फिर नक्षत्रों के नाम-मन्त्रों से होम करना चाहिए। पुन: “प्रेता जयता नर इन्द्रो व: शर्म यच्छतु” (ऋग्वेद – 10।103।13, युज. 17।46) इस मन्त्र से उन नक्षत्र-मन्त्रों को सम्पुटित करके होम करना चाहिए।

इसके बाद उन पुतलों के साथ शव का दाह करें, सपिण्ड श्राद्ध के दिन पुत्र यथाविधि पंचक-शान्ति का अनुष्ठान करें। पंचक दोष की शान्ति के लिए क्रमश: तिलपूर्ण पात्र, सोना, चाँदी, रत्न तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्र का दान करना चाहिए। इस प्रकार पंचक-शान्ति विधान करके जो शव दाह करता है, उसे पंचकजन्य कोई विघ्न-बाधा नहीं होती और प्रेत भी सद्गति प्राप्त करता है। इस प्रकार पंचक में मृत व्यक्ति का दाह करना चाहिए और पंचक के बिना मरने पर केवल शव का दाह करना चाहिए। यदि मृत व्यक्ति की पत्नी सती हो रही हो तो उसके दाह के साथ ही शव का दाह करना चाहिए।

अपने पति के प्रियसम्पादन में संलग्न पतिव्रता नारी यदि उसके साथ परलोकगमन करना चाहे (सती होना स्त्री की इच्छा पर निर्भर करता है, सती के नाम पर कोई जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए) तो पति की मृत्यु होने पर स्नान करे और अपने शरीर को कुंकुम, अंजन, सुन्दर वस्त्राभूषणादि से अलंकृत करे, ब्राह्मणों और बन्धु-बान्धवों को दान दे। गुरुजनों को प्रणाम करके तब घर से बाहर निकले। इसके बाद देवालय जाकर भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु को प्रणाम करे। वहाँ अपने आभूषणों को समर्पित करके वहाँ से श्रीफल लेकर लज्जा और मोह का परित्याग करके श्मशान भूमि में जाए तब वहाँ सूर्य को नमस्कार करके, चिता की परिक्रमा करके पुष्पशैय्या रूपी चिता पर चढ़े और अपने पति को गोद में लिटाए। तदनन्तर सखियों को श्रीफल देकर दाह के लिए आज्ञा प्रदान करे और शरीर दाह को गंगाजल में स्नान के समान मानकर अपना शरीर जलाए।

गर्भिणी (pregnant) स्त्री को अपने पति के साथ अपना दाह नहीं करना चाहिए। प्रसव करके और उत्पन्न बालक का पोषण करने के अनन्तर उसे सती होना चाहिए। यदि स्त्री अपने मृत पति के शरीर को लेकर अपने शरीर का दाह करती है तो अग्नि उसके शरीर मात्र को जलाती है, उसकी आत्मा को कोई पीड़ा नहीं होती। धौंके जाते हुए स्वर्णादि धातुओं का मल जैसे अग्नि में जल जाता है, उसी प्रकार पति के साथ जलने वाली नारी अमृत के समान अग्नि में अपने पापों को जला देती है। जिस प्रकार सत्यपरायण धर्मात्मा पुरुष शपथ के समय तपे हुए लोहपिण्डादि को लेने पर भी नहीं जलता, उसी प्रकार चिता पर पति के शरीर के साथ संयुक्त वह नारी भी कभी नहीं जलती अर्थात उसे दाहप्रयुक्त कष्ट नहीं होता। प्रत्युत उसकी अन्तरात्मा मृत व्यक्ति की अन्तरात्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर लेती है।

पति की मृत्यु होने पर जब तक स्त्री उसके शरीर के साथ अपने शरीर को नहीं जला लेती, तब तक वह किसी प्रकार भी स्त्री शरीर प्राप्त करने से मुक्त नहीं होती। इसलिए सर्वप्रयत्नपूर्वक मन, वाणी और कर्म से जीवितावस्था में अपने पति की सदा सेवा करनी चाहिए और मरने पर उसका अनुगमन करना चाहिए। पति के मरने पर जो स्त्री अग्नि में आरोहण करती है, वह महर्षि वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धती के समान होकर स्वर्गलोक में सम्मानित होती है। वहाँ वह पतिपरायणा नारी अप्सरागणों के द्वारा स्तूयमान होकर चौदह इन्द्रों के राज्यकालपर्यन्त अर्थात एक कल्प तक अपने पति के साथ स्वर्गलोक में रमण करती है। जो सती अपने भर्ता का अनुगमन करती है, वह अपने मातृकुल, पितृकुल और पतिकुल – इन तीनों कुलों को पवित्र कर देती है।

मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोमकूप हैं, उतने काल तक वह नारी अपने पति के साथ स्वर्ग में आनन्द करती है। वह सूर्य के समान प्रकाशमान विमान में अपने पति के साथ क्रीड़ा करती है और जब तक सूर्य और चन्द्र की स्थिति रहती है तब तक पतिलोक में निवास करती है। इस प्रकार दीर्घ आयु प्राप्त करके पवित्र कुल में पैदा होकर पतिरूप में वह पतिव्रता नारी उसी जन्मान्तरीय पति को पुन: प्राप्त करती है।

जो स्त्री क्षणमात्र के लिए होने वाले दाह-दु:ख के कारण इस प्रकार के सुखों को छोड़ देती है, वह मूर्खा जन्मपर्यन्त विरहाग्नि में जलती रहती है। इसलिए पति को शिवस्वरूप जानकर उसके साथ अपने शरीर को जला देना चाहिए। शव के आधे या पूरे जल जाने पर उसके मस्तक को फोड़ना चाहिए। गृहस्थों के मस्तक को काष्ठ से और यतियों के मस्तक को श्रीफल से फोड़ देना चाहिए।

पितृलोक की प्राप्ति के लिए उसके ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके उसका पुत्र निम्न मन्त्र से अग्नि में घी की आहुति दे – हे अग्निदेव ! तुम भगवान वासुदेव के द्वारा उत्पन्न किए गए हो। पुन: ततुम्हारे द्वारा इसकी तेजोमय दिव्य शरीर की उत्पत्ति हो। स्वर्गलोक में गमन करने के लिए इसका स्थूल शरीर जलकर तुम्हारा हवि हो, एतदर्थ तुम प्रज्वलित होओ। इस प्रकार मन्त्रसहित तिलमिश्रित घी की आहुति देकर जोर से रोना चाहिए, उससे मृत प्राणी सुख प्राप्त करता है।

दाह के अनन्तर स्त्रियों को स्नान करना चाहिए। तत्पश्चात पुत्रों को स्नान करना चाहिए। तदनन्तर मृत प्राणि के गोत्र-नाम का उच्चारण करके तिलांजलि देनी चाहिए फिर नीम के पत्तों को चबाकर मृतक के गुणों का गान करना चाहिए। आगे-आगे स्त्रियों को और पीछे पुरुषों को घर जाना चाहिए और घर में पुन: स्नान करके गोग्रास देना चाहिए। पत्तल में भोजन करना चाहिए और घर का अन्न नहीं खाना चाहिए। मृतक के स्थान को लीपकर वहाँ बारह दिन तक रात-दिन दक्षिणाभिमुख अखण्ड दीपक जलाना चाहिए।

हे तार्क्ष्य :- शवदाह के दिन से लेकर तीन दिन तक सूर्यास्त होने पर श्मशान भूमि में अथवा चौराहे पर मिट्टी के पात्र में दूध तथा जल देना चाहिए।

काठ की तीन लकड़ियों को दृढ़तापूर्वक सूत से बाँधकर अर्थात तिगोड़िया बनाकर उस पर दूध और जल से भरे हुए कच्चे मिट्टी के पात्र को रखकर यह मन्त्र पढ़े – हे प्रेत ! तुम श्मशान की आग से जले हुए हो, बान्धवों से परित्यक्त हो, यह जल और यह दूध तुम्हारे लिए है, इसमें स्नान करो और इसे पीओ (याज्ञवल्क्य स्मृति 3।17 की मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने कहा है कि प्रेत के लिए जल और दूध पृथक-पृथक पात्रों में रखना चाहिए और “प्रेत अत्र स्नाहि” कहकर जल तथा “पिब चेदम्” कहकर दूध रखना चाहिए)। साग्निक – जिन्होंने अग्न्याधान किया हो – को चौथे दिन अस्थिसंचय करना चाहिए और निषिद्ध वार-तिथि का विचार करके निरग्नि को तीसरे अथवा दूसरे दिन अस्थिसंचय करना चाहिए।

अस्थिसंचय के लिए श्मशान भूमि में जाकर स्नान करके पवित्र हो जाए। ऊन का सूत्र लपेटकर और पवित्री धारण करके – श्मशानवासियों (भूतादि) के लिए पुत्र को “यमाय त्वा.” (यजु. 38।9) इस मन्त्र से माष (उड़द) की बलि देनी चाहिए और तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। हे खगेश्वर ! इसके बाद चितास्थान को दूध से सींचकर जल से सींचे। तदनन्तर अस्थिसंचय करे और उन अस्थियों को पलाश के पत्ते पर रखकर दूध और जल से धोएँ और पुन: मिट्टी के पात्र पर रखकर यथाविधि श्राद्ध – पिण्डदान – करें। त्रिकोण स्थण्डिल बनाकर उसे गोबर से लीपे। दक्षिणाभिमुख होकर स्थपिण्डल के तीनों कोनों पर तीन पिण्डदान करें। चिताभस्म को एकत्र करके उसके ऊपर तिपाई रखकर उस पर खुले मुखवाला जलपूर्ण घट स्थापित करें।

इसके बाद चावल पकाकर उसमें दही और घी तथा मिष्ठान्न मिलाकर जल के सहित प्रेत को यथाविधि बलि प्रदान करें।

हे खग :- फिर उत्तर दिशा में पंद्रह कदम जाएँ और वहाँ गढ्ढा बनाकर अस्थि पात्र को स्थापित करें। उसके ऊपर दाहजनित पीड़ा नष्ट करने वाला पिण्ड प्रदान करें और गढ्ढे से उस अस्थि पात्र को निकालकर उसे लेकर जलाशय को जाएँ। वहाँ दूध और जल से उन अस्थियों को बार-बार प्रक्षालित करके चन्दन और कुंकुम से विशेषरूप से लेपित करें फिर उन्हें एक दोने में रखकर हृदय और मस्तक में लगाकर उनकी परिक्रमा करें तथा उन्हें नमस्कार करके गंगा जी में विसर्जित करें। जिस मृत प्राणी की अस्थि दस दिन के अन्तर्गत गंगा में विसर्जित हो जाती है, उसका ब्रह्मलोक से कभी भी पुनरागमन नहीं होता। गंगाजल में मनुष्य की अस्थि जब तक रहती है उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में विराजमान रहता है।

गंगा जल की लहरों को छूकर हवा जब मृतक का स्पर्श करती है तब उस मृतक के पातक तत्क्षण ही नष्ट हो जाते हैं। महाराज भगीरथ उग्र तप से गंगा देवी की आराधना करके अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिए गंगा देवी को ब्रह्मलोक से भूलोक ले आए थे। जिनके जल ने भस्मीभूत राजा सगर के पुत्रों को स्वर्ग में पहुँचा दिया, उन गंगा जी का पवित्र यश तीनों लोकों में विख्यात है।

जो मनुष्य अपनी पूर्व?

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Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji
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