Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

Shri Krishna Janmashtami Sadhana

Shri Krishna Janmashtami Sadhana | श्री कृष्ण जन्माष्टमी साधना

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी/महाकाली जयंती/विंध्यवासिनी जयंती पर्व भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी को मनाया जाता हैं। इस अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण का पूजन प्रस्तुत कर रहे है ..

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ॐ गुं गुरुभ्यो नमः

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ॐ गं गणेशाय नमः

ॐ श्रीकृष्ण परमात्मने नमः

अब 4 बार आचमन करे

क्लीं आत्मतत्वं शोधयामि स्वाहा

क्लीं विद्यातत्वं शोधयामि स्वाहा

क्लीं शिवतत्वं शोधयामि स्वाहा

क्लीं सर्वतत्वं शोधयामि स्वाहा

गुरुमण्डल के लिए पुष्प अक्षत अर्पण करे

ॐ गुरुभ्यो नमः

ॐ परम गुरुभ्यो नमः

ॐ पारमेष्ठी गुरुभ्यो नमः

अब आसन पर पुष्प अक्षत अर्पण करे

ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुनां धृता

त्वं च धारय मां देवी पवित्रम कुरु च आसनं

अब सभी दिशाओं में चारो तरफ अक्षत फेके

अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूवि संस्थिता :

ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यंतु शिवाग्यया !!

दीपक को प्रणाम करे

दीप देवताभ्यो नम:

◆अब हाथ मे जल पुष्प लेकर संकल्प करे की आज जन्माष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण के जन्मदिन पर भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने हेतु मै श्रीकृष्ण पूजन संपन्न कर रहा हु

अब भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कर आवाहन करे

#श्रीकृष्ण ध्यान●

ध्याये चतुर्भुजम कृष्णं शंखचक्रगदाधरम

पीताम्बरधरम देवं मालाकौस्तुभभूषितम !!

बालकृष्णमुदारांग देवकीगर्भसंभवम

ध्यायेत अभिष्ट सिद्ध्यर्थं लोकानुग्रहविग्रहम !!

भगवान श्रीकृष्ण ध्यायामि आवाहयामि

1)आवाहये जगन्नाथं रुक्मिणीप्राणवल्लभम

प्रणतार्तिहर देवं सत्यभामेष्टदायकम !!

एह्येहि भो जगन्नाथ देवकीसहितप्रभो

अद्य त्वाम पूजयिष्यामि भीतोहं भवसागरात !!

2)कृष्णं च बलभद्रं च वसुदेवं च देवकीम

नन्दगोपं यशोदाम च सुभद्रां तत्र पूजयेत !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः सकलपरिवारसहित श्रीबालकृष्णम आवाहयामि

( तुलसी पत्र अर्पण करे )

3)योगिहृतपद्मनिलय गोपीजनमनोहर

आसनं गृह्यतां देव शकटासुरभंजन !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः आसनं समर्पयामि ( तुलसी पत्र अर्पण करे )

4)तृणीकृत तृणावर्त धेनुकासुरभंजन

पाद्यं गृहाण देवेश वत्सासुरनिबर्हणे !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः पाद्यं समर्पयामि ( दो आचमनी जल अर्पण करे )

5)बकभंजन देवेश भावपाश विमोचन

अर्घ्यं गृहाण वरद भक्तानामिष्टदायक !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः ( आचमनी जल में गंध मिलाकर अर्पण करे )

6)चाणूरमुष्टिकारिष्ट विविधासुरभंजन

अघोरदैत्यशमन गृहाणाचमनं प्रभो !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः ( एक आचमनी जल अर्पण करे )

7)पयोदधिघृतानी हृत्वा गोपीकुमारकै:

वर्धयन गोपिकागेहे हास्यकारकबालाकै: !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः पंचामृत स्नानं समर्पयामि

8)नारायण नमस्तेस्तु नरकार्णवतारक

गंगोदकं समानतस्नानार्थं प्रतिगृह्यताम !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि

◆यहाँ पर आप चाहे तो पुरुषसूक्त या अन्य किसी स्तोत्र सूक्त से अभिषेक कर सकते है

अभिषेक के बाद देवमूर्ति या शालिग्राम स्वच्छ करे

9)जलक्रीडा समासक्त गोपीवस्त्रापहारक

वस्त्रम गृहाण देवेश नरकासुरभञ्जन !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः वस्त्रम समर्पयामि

10)यज्ञभृतयज्ञ देवेश यज्ञान्तकनिबर्हण

यज्ञसाधन यज्ञांग यज्ञानां फलदायक !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः यज्ञोपवीतं समर्पयामि

11)आपो नीलसमायुक्त माणिक्य तेजसान्वीतम

वैडूर्य वायुसम्भूतं रतनमाकरसम्भवम !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः नाना आभूषणं समर्पयामि

12)गंधान गृहाण देवेश कुंकुमागरु संयुतां

कस्तूरीसंयुतम कृष्ण कमलाक्ष नमोस्तुते !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः चन्दनम समर्पयामि

13)अक्षताश्च चन्द्रवर्णाभान हरिद्राचूर्णसंयुतां

अक्षतान गृह्यतां देव शरणागतवत्सल !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः अक्षतान समर्पयामि

14)कदम्बबकुलाशोकयूथिकाकुसुमानि च

तुलसीसंयुतां देव गृहाण मधुसूदन !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः नानाविधपरिमलपुष्पाणि समर्पयामि

#अथ नामपूजा ●

एकेक नाम का उच्चारण कर तुलसी पत्र या पुष्प अर्पण करते जाए

ॐ श्रीकृष्णाय नमः

ॐ विष्णवे नमः

ॐ हरये नमः

ॐ अनन्ताय नमः

ॐ गोविन्दाय नम:

ॐ गरुड़ध्वजाय नमः

ॐ हृषिकेशाय नमः

ॐ पद्मनाभाय नमः

ॐ हरये नमः

ॐ प्रभवे नमः

ॐ विष्णवे नमः

ॐ नारायणाय नमः

ॐ वैकुण्ठाय नमः

ॐ केशवाय नमः

ॐ माधवाय नमः ‘

ॐ स्यंभुवे नमः

ॐ दैत्यारये नमः

ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः

ॐ पीताम्बरधराय नमः

ॐ अच्युताय नमः

ॐ शारंगपाणये नमः

ॐ विश्वाय नमः

ॐ जनार्दनाय नम:

ॐ उपेन्द्राय नमः

ॐ इन्द्रवरदाय नमः

ॐ देवकीनन्दनाय नमः

ॐ वासुदेवाय नम:

ॐ श्रीकृष्णाय नमः

#अथ अंगपूजा ●

एकेक नाम का उच्चारण करके तुलसी पत्र या पुष्प अर्पण करे

1)ॐ कालियामर्दनाय नमः गुल्फौ पूजयामि

2)ॐ कंसमदभञ्जनाय नमः जंघे पूजयामि

3)ॐ केशिघ्ने नमः जानुनी पूजयामि

4)ॐ शकटासुरभञ्जनाय ,नमः उरु पूजयामि

5)ॐ तृणावर्तभञ्जनाय नम: कटिं पूजयामि

6)ॐ धेनुकप्रहारिणे नमः नाभिं पूजयामि

7)ॐ दामोदराय नमः उदरं पूजयामि

8)ॐ विश्वगर्भाय नमः हृदयम पूजयामि

9)ॐ वत्सांकाय नमः पादौ पूजयामि

10)ॐ चतुर्भुजाय नमः बाहु पूजयामि

11)ॐ कम्बुग्रीवाय नमः कंठम पूजयामि

12)ॐ वाचस्पतये नमः मुखम पूजयामि

13)ॐ कमलाक्षाय नमः नेत्रे पूजयामि

14)ॐ बाणबाहवे नमः नासिकां पूजयामि

15)ॐ कस्तूरीतिलकाय नमः ललाट पूजयामि

16)ॐ अक्रूरवरदाय नमः शिर: पूजयामि

17)ॐ रुक्मिणीशाय नमः सर्वांग पूजयामि नम:

#अथ पत्र पूजा ●

जो पत्री उपलब्ध नहीं है उसकी जगह पुष्प या तुलसी पत्र अर्पण करे –

1)ॐ केशवाय नमः तुलसीपत्रम समर्पयामि

2)ॐ नारायणाय नमः चुतपत्रं समर्पयामि

3)ॐ माधवाय नमः चम्पकपत्रम समर्पयामि

4)ॐ गोविन्दाय नमः धात्रीपत्रं समर्पयामि

5)ॐ विष्णवे नमः विष्णुक्रांता पत्रं समर्पयामि

6)ॐ मधुसूदनाय नमः दूर्वापत्रं समर्पयामि

7)ॐ त्रिविक्रमाय नमः बिल्वपत्रं समर्पयामि

8)ॐ वामनाय नमः औदुम्बरपत्रं समर्पयामि

9)ॐ श्रीधराय नमः वटपत्रं समर्पयामी

10)ॐ हृषिकेशाय नमः शमीपत्रं समर्पयामि

11)ॐ पद्मनाभाय नमः पद्मपत्रं समर्पयामि

12)ॐ दामोदराय नमः सेवन्तिकापत्रं समर्पयामि

13)ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः नानाविधपत्राणि समर्पयामि

#अथ पुष्प पूजा ●

1)ॐ संकर्षणाय नमः केतकीपुष्पं समर्पयामि

2)ॐ वासुदेवाय नमः कमलपुष्पं समर्पयामि

3)ॐ प्रद्युम्नाय नमः चम्पक पुष्पम समर्पयामि

4)ॐ अनिरुद्धाय नमः मल्लिकापुष्पं समर्पयामि

5)ॐ पुरुषोत्तमाय नमः जाजी पुष्पम समर्पयामि

6)ॐ अधोक्षजाय नमः सुगन्धिपुष्पं समर्पयामि

7)ॐ नारसिंहाय नम: पारिजातकपुष्पम समर्पयामि

8)ॐ अच्युताय नमः बकुलपुष्पं समर्पयामि

9)ॐ जनार्दनाय नमः करवीरपुष्पम समर्पयामि

10)ॐ उपेन्द्राय नमः नागचम्पक पुष्पम समर्पयामि

11)ॐ हरये नमः सेवन्तिकापुष्पम समर्पयामि

12)ॐ श्रीबालकृष्णाय नमः नानाविधपुष्पाणि समर्पयामि

#दशावतार पूजन ●

एकेक नाम का उच्चारण कर पुष्प या तुलसी अर्पण करे

ॐ मत्स्य अवताराय नम:

ॐ कूर्म अवताराय नम:

ॐ वराह अवताराय नम:

ॐ नारसिंह अवताराय नम:

ॐ वामन अवताराय नम:

ॐ भार्गव अवताराय नम:

ॐ राम अवताराय नम:

ॐ श्रीकृष्ण अवताराय नम :

ॐ बुद्ध अवताराय नम:

ॐ कल्की अवताराय नम:

अब भगवान को धुप दीप दिखाये

15)धूप दुग्धाब्धिशयन गंधाद्यै सुमनोहरं

सर्वाभिष्टप्रदं देव गृहणासुरभंजन !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: धूपम समर्पयामि

16) दीपम

साज्यं त्रिवर्तीसंयुक्तं द्न्यान विद्न्यानसाधनम

दीपं गृहाण देवेश कैवल्यफलदायकम !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: दीपं समर्पयामि

17) नैवेद्य

भक्ष्यभोज्यफलोपेतं दध्योदन समनवितम

नैवेद्य स्वीकुरुष्वेदं देवक्या सह केशव !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: नैवेद्यम समर्पयामि

पुन: आचमनीयम जलम समर्पयामि

18)तांबुलम च सकर्पुरम सुगंधद्रव्यमिश्रितम

नागवल्लीदलैर्युक्तम गृहाण वरदो भव !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: तांबुलम समर्पयामि

19)दक्षिणा

सौवर्ण राजतं ताम्र नानारत्नसमनवितम

कर्मषांग्यगुण सिद्ध्यर्थम दक्षिणाम प्रतिगृह्यताम !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: दक्षिणा समर्पयामि

20)फलानि

रंभाफलं नारिकेलं तथैवाम्रफलानि च

पुजितजेसि सुरश्रेष्ठ गृह्यतां कंससूदन !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: फलानि समर्पयामि

21)कर्पूर आरती

कर्पूरकं महाराज रंभोद्भुत च दीपकं

मंगलार्थ महीपाल संगृहाण जगतपते !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: कर्पूरार्तीकं समर्पयामि

22)प्रसन्नार्ध्यम

देवकीगर्भसंभूत कंसप्राणापहारक .

इदम अर्घ्यम प्रदास्यामि मम कृष्ण प्रसीद भो !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: प्रसन्नार्घ्यम समर्पयामि

23)नमस्कार

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने

प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम: !!

नमो ब्रम्हण्यदेवाय गोब्राम्हणहिताय च

जगद्धिताय कृष्णाय गोविंदाय नमो नम: !!

नमस्तुभ्यम जगन्नाथ देवकीतनय प्रभो

वसुदेवात्मजानंत यशोदानंदवर्धन !!

गोविंद गोकुलाधार गोपीकांत नमोस्तुते !!

ॐ श्रीबालकृष्णाय नम: नमस्कारम समर्पयामि

24)क्षमापनम

अपराध सहस्त्राणि क्रियंते अहर्निशम मया

तानि सर्वाणि मे देव क्षमस्व पुरुषोत्तम !!

एक आचमनी जल अर्पण करे

श्रीकृष्ण: प्रतिगृहाण्यति श्रीकृष्णो वै ददाति च

श्रीकृष्णस्तारकोभाम्यां श्रीकृष्णाय नमो नम:

इति श्री पद्मपुराणोक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व अवसरे श्रीकृष्ण पुजा संपूर्णा !!

#प्रार्थना ●

नमस्तुभ्यं जगन्नाथ देवकीतनय प्रभो

वसुदेवात्मजानंत यशोदानंदवर्धन

गोविंद गोकुलाधार गोपीकांत नमोस्तुते !!

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने

प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम: !!

कृष्ण च बलभद्रं च वसुदेवं च देवकीम

नंदगोपं यशोदा च सुभद्रा तत्र पूजयेत

अद्यस्थित्वा निराहारो श्वोभूते परमेश्वर

भोक्ष्यामि पुंडरिकाक्ष अस्मिन जन्माष्टमीव्रते !!

श्रीबालकृष्णाय नम: प्रार्थना समर्पयामि

#श्रीकृष्ण अर्घ्य ●

ॐ जात: कंसवधार्थाय भूभारोत्तारणाय च

कौरवाणाम विनाशाय दैत्यानां निधनाय !!

पांडवानां हितार्थाय धर्मसंस्थापनाय च

गृहाणार्घय मयादत्तं देवक्या सहितो हरे !!

देवकी सहित श्रीकृष्णाय इदमर्घ्यम दत्तं च न मम !!

चंद्र अर्घ्य

क्षीरोदार्णव संभूतं अत्रिगोत्रसमुद्भव

गृहाणार्घय मया दत्तं रोहिण्यासह सहित: शशिन !!

रोहिणी सहित श्री चंद्राय इदम अर्घ्य दत्तं न मम !!

अनेन मया आचरितेन श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रतेन पर्वकाले श्रीकृष्णाय अर्घ्य प्रदानेन भगवान श्रीकृष्ण प्रीयताम प्रीतो भवेत !!

अगर आप चाहे तो निम्न मंत्र का जाप कर सकते हो

||क्लीं कृष्णाय नम: ||

#श्रीकृष्णस्तोत्रम् ●

● पार्वत्युवाच –

भगवन् श्रोतुमिच्छामि यथा कृष्णः प्रसीदति । विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रभो ॥ १॥ पार्वती ने कहा – हे भगवन ! हे प्रभो ! मैं यह पूँछना चाहती हूँ कि बिना जप, बिना सेवा तथा बिना पूजाके भी कृष्ण कैसे प्रसन्न होते हैं ? ॥ १ ॥

यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदाधुना । अन्यथा देवदेवेश पुरुषार्थो न सिद्ध्यति ॥ २॥

जैसे कृष्ण प्रसन्न होंवे- उस उपाय को अब आप कहिए । नहीं तो, हे देवदेवेश ! (मानवका मोक्षरूप) पुरुषार्थ नहीं सिद्ध होता है ॥ २ ॥

●शिव उवाच –

साधू पार्वति ते प्रश्नः सावधानतया श‍ृणु! । विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रिये ॥ ३॥

यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदामि ते । जपसेवादिकं चापि विना स्तोत्रं न सिद्ध्यति ॥ ४॥ शिव ने कहा – हे पार्वति ! तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है । अब इसे सावधान होकर सुनो । बिना जपके, बिना उनकी सेवाके तथा बिना पूजाके भी, हे प्रिये ! जैसे कृष्ण प्रसन्न होवें उस उपाय को मैं अब कहता हूँ । जप और सेवा आदि भी बिना स्तोत्रके सिद्ध नहीं होते हैं ॥ ३-४ ॥

कीर्तिप्रियो हि भगवान्वरात्मा पुरुषोत्तमः । जपस्तन्मयतासिद्ध्यै सेवा स्वाचाररूपिणी ॥ ५॥ भगवान परमात्मा पुरुषोत्तम कीर्तिप्रिय (गुणसंकीर्तनसे प्रसन्न होनेवाले) हैं । जप तो भगवानमें तन्मयताकी सिद्धिके लिए होता है और सेवा स्वयंके आचरणके रूपवाली होती है ॥ ५ ॥

स्तुतिः प्रसादनकरी तस्मात्स्तोत्रं वदामि ते । सुधाम्भोनिधिमध्यस्थे रत्नद्वीपे मनोहरे ॥ ६॥ नवखण्डात्मके तत्र नवरत्नविभूषिते । तन्मध्ये चिन्तयेद्रम्यं मणिगृहमनुत्तमम् ॥ ७॥

भगवान्की स्तुति उन्हें प्रसन्न करनेवाली होती है । अतः उनके स्तोत्र को मैं तुमसे कहता हूँ । सुधा-समुद्रके मध्यमें मनोहर रत्नद्वीप पर नव रत्नसे विभूषित नव खण्डात्मक पीठ है । उस पीठके मध्यमें उत्तमोत्तम एवं रम्य ‘मणिगृह’का चिन्तन करना चाहिए ॥ ६-७ ॥

परितो वनमालाभिः ललिताभिः विराजिते । तत्र सञ्चिन्तयेच्चारु कुटिटमं सुमनोहरम् ॥ ८॥ चतुःषष्टया मणिस्तम्भैश्वतुदिक्ष विराजितम् । तव सिंहासने ध्यायेत्कृष्णं कमललोचनम् ॥ ९॥

चारो ओर ललित वनमालाओंसे शोभायमान सिंहासन पर आसीन भगवान् कमललोचन कृष्णका ध्यान करना चाहिए । उस सिंहासनका भी ध्यान करना चाहिए जो सिंहासन सुमनोहर एवं चारू फर्शवाला है और जो चारों ओर दिशाओंमें चौसठ मणिनिर्मित स्तम्भों से जगमगा रहा है ॥ ८-९ ॥

अनर्घ्यरत्नजटितमुकुटोज्वलकुण्डलम् । सुस्मितं सुमुखाम्भोजं सखीवृन्दनिषेवितम् ॥ १०॥ स्वामिन्याश्लिष्टबामाङ्गं परमानन्दविग्रहम् । एवं ध्यात्वा ततः स्तोत्रं पठेत्सुविजितेन्द्रियः ॥ ११॥

भगवान कृष्णका मुकुट चमचमाता हुआ और कुण्डल अनर्घ्य रत्नों से जटित है । उनका मुखकमल सुन्दर मुस्कानसे युक्त तथा सखी वृन्दसे सेवित है । उनका परमानन्द विग्रह वाम भागमें स्वामिनी (राधा)से संश्लिष्ट है । उस विग्रहका ध्यान करके जितेन्द्रिय साधक को उनके स्तोत्रका पाठ करना चाहिए ॥ १०-११ ॥

अथ स्तोत्रम् । कृष्णं कमलपत्राक्षं सच्चिदानन्दविग्रहम् । सखीयुथान्तरचरं प्रणमामि परात्परम् ॥ १२॥

सत्, चित् एवं आनन्दस्वरूप, कमलके पत्रके समान नेत्रोंवाले तथा सखीसमूहमें विचरण करनेवाले परात्पर कृष्ण को मेरा प्रणाम है ॥ १२ ॥

श‍ृङ्गाररसरूपाय परिपूर्णसुखात्मने । राजीवारुणनेत्राय कोटिकन्दर्परूपिणे ॥ १३॥ श‍ृंगाररसरूपवाले, परिपूर्ण सुखवाले, लाल कमलके समान अरुण नेत्रवाले तथा कोटिकामदेव स्वरूप कृष्ण को मेरा नमस्कार है ॥ १३ ॥

वेदाद्यगमरूपाय वेदवेद्यस्वरूपिणे । अवाङ्मनसविषयनिजलीलाप्रवर्त्तिने ॥ १४॥

वेद आदि आगमरूपवाले, वेदसे ही जाने जानेवाले, अन्तर मनके विषय तथा निज लीलाका स्वयं प्रवर्तन करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १४ ॥

नमः शुद्धाय पूर्णाय निरस्तगुणवृत्तये । अखण्डाय निरंशाय निरावरणरूपिणे ॥ १५॥

शुद्ध, पूर्ण, गुणोंकी वृत्तिसे निरस्त, अखण्ड, निरंश तथा आवरण रहितरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १५ ॥

संयोगविप्रलम्भाख्यभेदभावमहाब्धये । सदंशविश्वरूपाय चिदंशाक्षररूपिणे ॥ १६॥

संयोग एवं विप्रलम्भ नामक श‍ृंगाररसके भेदोंके भाव के महासमुद्र, सत् अंशसे विश्वस्वरूप और चित् अंशसे युक्त अक्षररूपवाले (नित्य) कृष्ण को नमस्कार है ॥ १६ ॥

आनन्दांशस्वरूपाय सच्चिदानन्दरूपिणे । मर्यादातीतरूपाय निराधाराय साक्षिणे ॥ १७॥

आनन्दके अंशके स्वरूपवाले, इस प्रकार सत्, चित् तथा आनन्द स्वरूपवाले, मर्यादासे भी अधिकरूपवाले, निराधार एवं (सर्व कार्यके) साक्षी कृष्ण को नमस्कार है ॥ १७ ॥

मायाप्रपञ्चदूराय नीलाचलविहारिणे । माणिक्यपुष्परागाद्रिलीलाखेलप्रवर्त्तिने ॥ १८॥

मायाप्रपञ्च (की परिधि)से दूर रहनेवाले, नीलाचल (जगन्नाथ पुरी)में विहार करनेवाले तथा माणिक्य एवं पुष्परागके अद्रि की लीला आदि खेलों को करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १८ ॥

चिदन्तर्यामिरूपाय ब्रह्मानन्दस्वरूपिणे । प्रमाणपथदूराय प्रमाणाग्राह्यरूपिणे ॥ १९॥

चित् रूपसे अन्तरात्मामें रहनेवाले, ब्रह्मानन्द स्वरूप, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे न जाने जानेवाले, अतः अनुमान आदि प्रमाण पथसे विज्ञेय कृष्ण को नमस्कार है ॥ १९ ॥

मायाकालुष्यहीनाय नमः कृष्णाय शम्भवे । क्षरायाक्षररूपाय क्षराक्षरविलक्षणे ॥ २०॥ मायाकी कालिमासे विहीन, कल्याण करनेवाले कृष्ण को नमस्कार हैं । क्षर (अनित्य) और अक्षर (नित्य) स्वरूपवाले तथा क्षर एवं अक्षरसे भी विलक्षण (गुणातीत एवं अनन्त) स्वरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २० ॥

तुरीयातीतरूपाय नमः पुरुषरूपिणे । महाकामस्वरूपाय कामतत्त्वार्थवेदिने ॥ २१॥ तुरीयसे अतीत रूपवाले एवं पुरुष रूपवाले कृष्ण को नमस्कार है । महान काम स्वरूपवाले एवं काम तत्त्वके अर्थके ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २१ ॥

दशलीलाविहाराय सप्ततीर्थविहारिणे । विहाररसपूर्णाय नमस्तुभ्यं कृपानिधे ॥ २२॥

दशावताररूप लीलामें विहार करनेवाले तथा (मथुराके जमुना, जन्मभूमि व्रज आदि) सप्ततीर्थोंमें विचरण करनेवाले, (लीला) विहारके रससे पूर्ण और तुम कृपाके निधान कृष्ण को नमस्कार है ॥ २२ ॥

विरहानलसन्तप्त भक्तचित्तोदयाय च । आविष्कृतनिजानन्दविफलीकृतमुक्तये ॥ २३॥

(कृष्णके) विरहकी अग्निसे संतप्त तथा भक्तके चित्तमें प्राणका संचार करनेवाले और अपने मुक्ति को विफल करनेके लिए आनन्द को स्वयं प्रकट करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २३ ॥

द्वैताद्वैत महामोहतमःपटलपाटिने । जगदुत्पत्तिविलय साक्षिणेऽविकृताय च ॥ २४॥ (माया एवं ब्रह्मरूप से) द्वैत तथा (ब्रह्मरूप से) अद्वैत रूपसे महा मोहके अन्धकार पटल को समाप्त कर देनेवाले, जगत्की उत्पत्ति और उसके विलयके साक्षी एवं अविकृत कृष्ण को नमस्कार है ॥ २४ ॥

ईश्वराय निरीशाय निरस्ताखिलकर्मणे । संसारध्वान्तसूर्याय पूतनाप्राणहारिणे ॥ २५॥

ईश्वर, ईशविहीन, समस्त कर्मसे रहित, संसारके अन्धकार को नष्ट करनेके लिए सूर्यरूप तथा पूतनाके प्राणका हरण कर लेनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २५ ॥

रासलीलाविलासोर्मिपूरिताक्षरचेतसे । स्वामिनीनयनाम्भोजभावभेदकवेदिने ॥ २६॥

रास लीलाके विलासरूप समुद्रकी लहरसे पूरित होकर भी अक्षर चित्तवाले, स्वामिनी राधाके नयन कमलकी भावभङ्गिमाके एक मात्र ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २६ ॥

केवलानन्दरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे । स्वामिनीहृदयानन्दकन्दलाय तदात्मने ॥ २७॥

मात्र मानन्दरूपवाले सृष्टि कर्ता तथा स्वामिनी राधाके हृदयानन्दके दाता एवं तद्प कृष्णके लिए नमस्कार है ॥ २७ ॥

संसारारण्यवीथीषु परिभ्रान्तात्मनेकधा । पाहि मां कृपया नाथ त्वद्वियोगाधिदुःखिताम् ॥ २८॥ संसाररूपी अरण्यकी गलियोंमें अनेकरूपसे विचरण करनेवाले एवं आपके वियोगसे दुखित, हे नाथ ! आप कृपया मेरी रक्षा कीजिए ॥ २८ ॥

त्वमेव मातृपित्रादिबन्धुवर्गादयश्च ये । विद्या वित्तं कुलं शील त्वत्तो मे नास्ति किञ्चन ॥ २९॥

हे कृष्ण ! आप ही मेरे माता-पिता, बन्धु-बान्धव आदि सभी कुछ हैं । विद्या, धन-सम्पत्ति, कुल एवं शील आदि गुण आप ही हैं । आपको छोड़कर मेरा इस संसारमें कुछ भी नहीं है ॥ २९ ॥

यथा दारुमयी योषिच्चेष्टते शिल्पिशिक्षया । अस्वतन्त्रा त्वया नाथ तथाहं विचरामि भोः ॥ ३०॥

जैसे लकड़ीकी बनी हुई नारी-कठपुतलीकी भाँति जैसे-जैसे डोरी से उसे चलाया जाय चलती रहती है उसी तरह मैं भी हे नाथ ! आपके आश्रित हूँ आप जैसे मुझे प्रेरित करते हैं मैं वैसे ही विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥

सर्वसाधनहीनां मां धर्माचारपराङ्मुखाम् । पतितां भवपाथोधी परित्रातुं त्वमहंसि ॥ ३१॥

हे स्वामि ! मैं सभी साधनोंसे हीन हूँ तथा मैं तो धर्माचरण से भी विमुख हूँ । अतः इस संसार समुद्रसे उद्धार करनेमें आप ही समर्थ हैं ॥ ३१ ॥

मायाभ्रमणयन्त्रस्थामूर्ध्वाधोभयविह्वलम् । अदृष्टनिजसकेतां पाहि नाथ दयानिधे ॥ ३२॥

हे स्वामि । हे दयानिधान ! माया मोहमें फंसे रहनेसे व्याकुल, यन्त्रस्यके समान ऊपर नीचे दोनों ओर घूमनेवाले तथा भय से व्याकुल मुझ निरुद्देश्य चक्कर काटनेवालेकी रक्षा कीजिए ॥ ३२ ॥

अनर्थेऽर्थदृशं मूढां विश्वस्तां भयदस्थले । जागृतव्ये शयानां मामुद्धरस्व दयापरः ॥ ३३॥ अनर्थ परम्परामें ही दृष्टिपात करनेवाले मूढ़ और भयदायी विषयोंमें ही विश्वास रखनेवाले और जागनेवालोंमें सोनेवाले मेरा, हे दयावान प्रभु ! उद्धार कीजिए ॥ ३३ ॥

अतीतानागत भवसन्तानविवशान्तराम् । बिभेमि विमुखी भूय त्वत्तः कमललोचन ॥ ३४॥

हे कमलनयन ! मैं अतीत एवं अनागत (भूत एवं भविष्य)में होनेवाली दुःखपरम्परामें पड़कर विवश हुआ मैं आपसे विमुख होकर भयग्रस्त हूँ ॥ ३४ ॥

मायालवणपाथोधिपयःपानरतां हि माम् । त्वत्सान्निध्यसुधासिन्धुसामीप्य नय माऽचिरम् ॥ ३५॥

क्योंकि मैं मायारूपी नमकीन समुद्रके पानी को पीनेमें संलग्न हूँ । अतः हे कृष्ण ! आप अपने सन्निध्यरूपी सुधा समुद्रके समीप मुझे शीघ्र ही खींच लाइए ॥ ३५ ॥

त्वद्वियोगार्तिमासाद्य यज्जीवामीति लज्जयः । दर्शयिष्ये कथ नाथ मुखमेतद्विडम्बनम् ॥ ३६॥ आपके विरहरूप विपत्तिमें पड़ा हुआ मैं जो लज्जासे जीवित हूँ उस विवर्ण मुख को, हे नाथ ! मैं आपको कैसे दिखाऊंगा ? यही विडम्बना है । अतः आप स्वयं मुझे खींच लीजिए ॥ ३६ ॥

प्राणनाथ वियोगेऽपि करोमि प्राणधारम् । अनौचिती महत्येषा किं न लज्जयतीह माम् ॥ ३७॥ हे प्राणनाथ । वियोगमें भी मैं प्राण धारण कर रहा हूँ- यह क्या महान अनौचित्य क्या नहीं है? मुझे तो आपके वियोगमें प्राणत्याग कर देना ही उचित था । यह मुझे लज्जा नहीं प्रदान कर रहा है ? ॥ ३७ ॥

किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे प्रवदाम्यहम् । उत्पद्यन्ते विलीयन्ते वृत्तयोब्धो यथोर्मयः ॥ ३८॥

मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसके समक्ष मैं अपनी विपदा को कहूँ ? इस प्रकार विचार समुद्रमें मेरे विचार लहरोंके समान ऊपर उठते हैं और पुनः उसीमें विलीन हो जाते हैं ॥ ३८ ॥

अहं दुःखाकुली दीना दुःखहा न भवत्परः । विज्ञाय प्राणनाथेदं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३९॥

मैं दुःख परम्परासे पीड़ित हूँ, दीन हूँ, दुःखका मारा हुआ हूँ तथा आपके परायण भी नहीं हूँ- यह सब जानकर, हे प्राणनाथ ! आप जो चाहें वही करें ॥ ३९ ॥

ततश्च प्रणमेत्कृष्णं भूयो भूयः कृताञ्जलिः । इत्येतद्गुह्यमाख्यातं न वक्तव्यं गिरीन्द्रजे ॥ ४०॥

इसके बाद हाथ जोड़कर श्रीकृष्णके समक्ष बारम्बार प्रणाम करे । हे गिरिराज हिमालयकी पुत्रि ! यह रहस्य मैंने आपसे बता दिया है । इसे किसी (अपात्र) को कभी नहीं बताना चाहिए ॥ ४० ॥

एवं यः स्तोति देवेशि त्रिकालं विजितेन्द्रियः । आविर्भवति तच्चित्ते प्रेमरूपी स्वयं प्रभुः ॥ ४१॥

हे देवेशि ! इस प्रकार जो जितेन्द्रिय साधक त्रिकालमें भगवान् चिदानन्दधन परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्णकी स्तुति करता है, उसके (निर्मल) चित्तमें प्रेमरूपी प्रभु स्वयं आविर्भूत हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

||इति माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे एवं ज्नानखण्डे शिवोमासंवादे सप्तचत्वारिंशपटलं श्रीकृष्णस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

#कृष्ण जन्माष्टमी व्रत कथा●

स्कन्दपुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि द्वापर में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे।

यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्यपुराण का वचन है- भादों मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है।

केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो ‘जयंती’ नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।

इंद्र ने कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे देव, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा हे ब्रह्मन्‌! उस व्रत से प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।

नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा।

इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे अदितिपुत्र इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी।

ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में ‘कृष्ण’ के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।

ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे।

इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी।

तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णनकीजिए और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई।

उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी से प्रिय वाणी में कहा- हे कान्ते!

इस प्रकार तुम क्यों विलाप कर रही हो। अपने रोने का कारण मुझसे बताओ। तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया।

इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।

देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।

तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं।

यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।

कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया।

कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी।

उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।

इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए।

द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें।

उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं।

किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।

प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी।

जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।

उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई।

उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।

जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए।

इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो।

द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।

कंस की बातों को सुनकर नंद ने ‘ऐसा हीहोगा’ कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।

कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।

हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं।

यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- ‘हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी!

आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।

अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।

अब कलियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया।

जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।

तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया।

इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए।

आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र!

कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया।

केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।

हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, जिसके परिणामस्वरूप बलदेवजी सुदर्शन चक्र लेकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर आए। उन्हें आता देख बालक कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को उनसे लेकर स्वयं गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए।

इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।

जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।

कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।P

इस कथा को सुनने के पश्चात इंद्र ने नारदजी से कहा- हे ऋषि इस कृष्ण जन्माष्टमी का पूर्ण विधान बताएं एवं इसके करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है, इसके करने की क्या विधि है?

नारदजी ने कहा- हे इंद्र! भाद्रपद मास की कृष्णजन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण का स्थापन करना चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से वेष्टित कर विधिपूर्वक अर्चन करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग-अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें।

हरि के सान्निध्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। इसके पश्चात आठवें वर्ष की समाप्ति पर इस महत्वपूर्ण व्रत का उद्यापन कर्म भी करें।

यथाशक्ति विधान द्वारा श्रीकृष्ण की स्वर्ण प्रतिमा बनाएँ। इसके पश्चात ‘मत्स्य कूर्म’ इस मंत्र द्वारा अर्चनादि करें। आचार्य ब्रह्मा तथा आठ ऋत्विजों का वैदिक रीति से वरण करें। प्रतिदिन ब्राह्मण को दक्षिणा और भोजन देकर प्रसन्न करें।

उपवास पूर्ण विधि ।

उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें-

ममाखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥

अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए ‘सूतिकागृह’ नियत करें। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो। इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए।

फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें- ‘प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।

वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।

सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।’

अंत में प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करें।

जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं|

#कृष्णाष्टकम_स्तोत्र।*

*वासुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनं।*

*देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगतगुरूम्।।

*चतुर्मुखादि-संस्तुं समस्त सात्वतानुतम्‌।*

*हलायुधादि-संयुतं नमामि राधिकाधिपम्‌॥१*

*बकादि-दैत्यकालकं सगोपगोपि पालकम्‌।*

*मनोहरासितालकं नमामि राधिकाधिपम्‌॥२*

*सुरेन्द्रगर्वभंजनं विरंचि-मोह-भंजनम्‌।*

*व्रजांगनानुरंजनं नमामि राधिकाधिपम्‌॥३*

*मयूरपिच्छमण्डनं गजेन्द्र-दन्त-खण्डनम्‌।*

*नृशंसकंशदण्डनं नमामि राधिकाधिपम्‌॥४*

*प्रसन्नविप्रदारकं सुदामधाम कारकम्‌।*

*सुरद्रुमापहारकं नमामि राधिका धिपम्‌॥५*

*धनंजयाजयावहं महाचमूक्षयावहम्‌।*

*पितामहव्यथापहं नमामि राधिकाधिपम्‌॥६*

*मुनीन्द्रशापकारणं यदुप्रजापहारणम्‌।*

*धराभरावतारणं नमामि राधिकाधिपम्‌॥७*

*सुवृक्षमूलशायिनं मृगारिमोक्षदायिनम्‌।*

*स्वकीयधाममायिनं नमामि राधिकाधिपम्‌॥८*

*इदं समाहितो हितं वराष्टकं सदा मुदा।*

*जपंजनो जनुर्जरादितो द्रुतं प्रमुच्यते॥९*

*इतिश्रीपरमहंसब्रह्मानन्दविरचितं कृष्णाष्टकं सम्पूर्णम्‼️*

||श्री कृष्णम वन्दे जगदगुरूम, निखिलं वंदे जगदगुरूम||

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