उपनिषद वाणी JAI GURUDEV सारा संसार माया के विविध रूपों से घिरा हुआ है। हमारे चिन्तन का स्वरूप भी माया के जालों से बुना हुआ है। जब भी कोई लेखक सामान्य से सामान्य विषयों पर भी कोई लेख लिखता है, तो रामायण और महाभारत जैसे विशेष धार्मिक एवं ज्ञानवर्द्धक ग्रंथों एवं शास्त्रों के माध्यम से समझाने की कोशिश करता है, क्योंकि इन ग्रंथों से सद्गुणों एवं दुर्भावनाओं के साथ-साथ धर्म-कर्म, अध्यात्म, दर्शन आदि अन्य विषयों का भी ज्ञान मिलता है। इतना सब कुछ जानने के बाद भी हम अंधकार में डूबे ही रहते हैं। फलस्वरूप हम अपनी मनोभावनाओं का परित्याग करने में असफल ही रहते हैं। माया, जिसे रामायण में निशाचर कहा गया है, एक ऐसी दीवार है, जिसको गिराना समान्य व्यक्तियों के लिये सम्भव नहीं है। हम अपने ही बनाये हुये जालों में उलझकर रह जाते हैं और हम चाहकर भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते हैं। मनुष्य मकड़े की तरह भौतिक साधनों को जुटाने में ही जालों का निर्माण करता रहता है। सभी मनुष्यों में एक ही चेतना व्याप्त है, जो कि उसके अन्तस में निहित है। इसका विकास तथा इसकी पहचान ही मनुष्य का लक्ष्य है, उद्देश्य है। यह माया ही हमारे विकास के मार्ग में एक बाधा है, माया का जाल जिन्दगी के हर दौर में अपनी करामात दिखाता ही रहता है। साधु-सन्त ही इस निशाचरी माया की दीवार को तोड़ने में सक्षम होते हैं। माया शब्द कुछ अटपटा सा लगता है, किन्तु इसको तोड़ पाना अंधकार से प्रकाश में जाना है। इसकी पकड़ बड़ी मजबूत है। यदि राह चलते समय किसी गिरे पथिक को घायल अवस्था में देखें, तो सम्भवतः हमारे मन में एक दया-भाव उत्पन्न हो, ऐसा भी सम्भव है, कि हम उसकी कुछ सहायता भी कर दें, किन्तु दिल में उतनी तड़प पैदा नहीं हो सकती, जितनी कि उसी अवस्था में अपने किसी स्वजन को या परिवार के किसी सदस्य को या किसी आत्मीय को देखकर होगी। उस अपरिचित राही को हम प्रायः थोड़े ही समय में भूल जायेंगे, किन्तु अपने आत्मीय को भुलाना सम्भव नहीं होगा। बार-बार हमारा ध्यान उसी तरफ जायेगा, भले ही हम किसी अन्य स्थान में, उससे दूर हों, जहां से कुछ करना भी सम्भव न हो। इसे ही माया, महामाया का पर्दा कहा जा सकता है। यही वह बन्धन है, जिससे मनुष्य छुटकारा नहीं पाता है। ऐसे समय हम यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं, कि वह अपना नहीं था। हम क्यों किसी के लिये अपना समय बर्बाद करें। लेकिन क्या आपने इस विषय में कभी गहराई से सोचा, कि अपना कौन है, कौन पराया…? इन्सान की मृत्यु के समय उसकी पत्नी, पुत्र, भाई, माता-पिता या अन्य कौन परिजन उसका साथ देता है? कौन होता है उस समय अपना? पूजा-पाठ हमारी मनोभावना का साकार रूप है। प्रार्थना भी हम अपनी निजी भावना से करते हैं। शांति के लिये यह एक पथ है, रास्ता है। यह हमारी एक साकार अभिव्यक्ति है, जो कि मानसिक एवं भावात्मक है। अपने मन को, अपने अन्तर्मन को जाग्रत करने का एक मार्ग है, एक साधन है। संसार के सभी जीवों की जीवन शैली एक दूसरे से भिन्न है, मगर निशाचरों से अर्थात् माया से सभी घिरे हुये हैं, चाहे इंसान हो या पशु-पक्षी। इन सभी विषयों पर प्रकाश डालने के लिये समय-समय पर साधु-सन्तों, गुरूओं तथा महापुरूषों का आगमन होता रहता है। ऐसे लोग माया के बन्धन को तोड़ सके तथा समाज एंव देश-काल के भाल पर ज्योति जगा सके। आज भी हम जिनका अनुसरण एवं स्मरण करते हैं। शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, तुलसीदास, कबीर, सूर, विवेकानन्द, दयानन्दसरस्वती, गोरखनाथ आदि ऐसे अनेकों महापुरूष हुये जो कि इस मायाजाल को तोड़कर अपना नाम अमर कर सकें। महाभारत के युद्ध में अर्जुन माया से ही घिरा था। आस्था से अधिक दान भी कर्ण के लिये माया ही थी, जिसके कारण उसे भी हार का मुंह देखना पड़ा, अन्यथा कर्ण को मारने के लिये भगवान कृष्ण को भी सोचना पड़ जाता। हमारे धर्म ग्रंथों में माया के अनेक रूप बताये गये हैं- बिना समझे किसी को वचन देना या किसी प्रश्न का उत्तर देना, दुश्मनों पर विश्वास कर लेना, बिना सोचे कुछ देना या लेना, इसी प्रकार अनजाने में कार्य का होना भी माया के रूप हैं। माया के रूपों का वर्णन करना सम्भव ही नहीं है। विनाश के कार्य में लगे रहना, अंधकार या अज्ञान में रहना भी माया के रूप हैं और जब तक हम माया के जाल से बाहर नहीं आते, तब तक मानसिक चेतना का विकास सम्भव नहीं है। जब तक यह विकास नहीं होगा तब तक हम स्वयं को पहचान नहीं सकते। दोस्त-दुश्मन, अपना-पराया ये सभी रिश्ते माया के बन्धन ही हैं। विनाश की जड़ ‘क्रोध’ है। क्रोध तो ज्ञानियों को भी भ्रमित करके मायाजाल में उलझा देता है। महाराजा दशरथ को ‘प्रेम’ (राम के प्रति) ने मृत्यु का ग्रास बना लिया, कैकेयी तथा मन्थरा ने भी इस जाल को नहीं समझा। सामान्यतः इसे कोई समझ ही नहीं पाता है। दशरथ के हाथों अनजानें में श्रवण कुमार की मृत्यु तथा उसके माता-पिता का श्राप- ये सब माया के ही स्वरूप है। महाभारत के युद्ध से पहले, अर्जुन को भी जब माया ने घेरा, तो उस माया के जाल से श्री कृष्ण ने उसे उबारा। काफी समझाने पर भी अर्जुन का संशय नहीं गया, तो भगवान कृष्ण को अपना विराट स्वरूप दिखाना पड़ा। सामान्य मनुष्यों को माया ने किसी न किसी रूप में जकड़ रखा है। वह साकार रूप में भी तथा निराकार रूप में भी सबको अपने जाल में उलझाये हुये है। बड़े-बड़े संत-सन्यासी, सिद्ध ऋषि-मुनि भी, यहां तक कि देवगण भी इस जाल में उलझ जाते हैं। इस बन्धन को तोड़ने का, इससे उबरने का केवल एक ही मार्ग है, एक ही विकल्प है- गुरू चरणों में अपने को पूर्णरूप से विसर्जित कर देना। गुरू के समीप जाते ही ये बन्धन ढीले पड़ जाते हैं, इसे तोड़ने के लिये गुरू सेवा ही एक साधन है, गुरू कृपा ही मार्ग है। क्योंकि सही रास्ते पर चलना, रास्ते का महत्व एवं मार्ग प्रशस्त करने वाले केवल गुरू ही है और गुरू-शिष्य का सम्बन्ध तो युगों-युगों का है, क्योंकि यह सम्बन्ध शरीर का नहीं बल्कि आत्मा का सम्बन्ध है। गुरू और शिष्य का सम्बन्ध तो पिता-पुत्र की ही तरह है या उससे भी ऊंचा है। गुरू इस संसार में आते हैं, तो केवल इसीलिये, कि वह अपने शिष्यों को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा सकें, उसे वह मार्ग बता सकें, उसे उसका लक्ष्य बता सकें। उसे माया के बन्धनों से मुक्त करके उस प्रकाश के दर्शन करा सकें। उस आनंद रस से उसे सराबोर कर सकें और शिष्य अपने आप को पहचान सके।
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